Thursday 18 January 2018

Dr. Rajendra Prasad



पूरा नाम  – राजेंद्र प्रसाद महादेव सहाय
जन्म       – 3 दिसंबर 1884
जन्मस्थान – जिरादेई (जि. सारन, बिहार)
पिता       – महादेव
माता       – कमलेश्वरी देवी
शिक्षा      – 1907  में कोलकता विश्वविद्यालय से M.A., 1910 में बॅचलर ऑफ लॉ उत्तीर्ण, 1915 में मास्टर ऑफ लॉ उत्तीर्ण।

जन्म और शिक्षा

डॉ राजेन्‍द्र प्रसाद का जन्‍म 3 दिसम्बर 1884 को बिहार प्रान्त के एक छोटे से गाँव जीरादेयू हुआ था। राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज मूलरूप से कुआँगाँव, अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। यह

एक कायस्थ परिवार था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को छोड़ कर बलिया जा बसे थे। कुछ परिवारों को बलिया भी रास नहीं आया इसलिये वे वहाँ से बिहार के जिला सारन के एक गाँव

जीरादेई में जा बसे। इन परिवारों में कुछ शिक्षित लोग भी थे। इन्हीं परिवारों में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का परिवार भी था। जीरादेई के पास ही एक छोटी सी रियासत थी - हथुआ। चूँकि

राजेन्द्र बाबू के दादा पढ़े-लिखे थे, अतः उन्हें हथुआ रियासत की दीवानी मिल गई। पच्चीस-तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान रहे। उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी। राजेन्द्र

बाबू के पिता महादेव सहाय इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र बाबू के चाचा जगदेव सहाय भी घर पर ही रहकर जमींदारी का काम देखते थे। अपने पाँच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे

थे इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे। उनके चाचा के चूँकि कोई संतान नहीं थी इसलिए वे राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र की भाँति ही समझते थे। दादा, पिता और चाचा के लाड़-प्यार में ही

राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ। दादी और माँ का भी उन पर पूर्ण प्रेम बरसता था।
राजेन्द्र प्रसाद के पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं। पाँच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से

फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेंद्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्य काल में ही, लगभग 13

वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना की टी० के० घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके

अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी।
लेकिन वे जल्द ही जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थानपप हुआ था। सन्

1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर

आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू

कानून की अपनी पढाई का अभ्यास भागलपुर, बिहार में कया करते थे।

राजनीतिक कैरियर

डॉ। प्रसाद ने एक शांत और हल्के ढंग से राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश किया। 1906 में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता सत्र में एक स्वयंसेवक के रूप में भाग लिया और 1911 में औपचारिक रूप से पार्टी में शामिल हो गए।
बाद में वह एआईसीसी के लिए चुने गए।  1917 में, महात्मा गांधी ने ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा इंडिगो की सशक्त खेती के खिलाफ किसानों के विद्रोह के कारणों के समर्थन में चंपारण की यात्रा की। गांधीजी ने  डॉ। प्रसाद को किसानों और ब्रिटिश दोनों के दावों के बारे में एक तथ्य खोजने का मिशन करने के लिए आमंत्रित किया।
हालांकि वे  शुरू में उलझन में थे लेकिन वे  गांधीजी की आस्था, समर्पण और दर्शन से प्रभावित थे। गांधी ने ‘चंपारण सत्याग्रह’ की शुरुआत की और डॉ प्रसाद ने उनके पूरे दिल से उनका समर्थन किया।
1920 में,  जब गांधी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की घोषणा की, डॉ। प्रसाद ने अपनी कानून प्रेक्टिस को छोड़ दिया और स्वतंत्रता आन्दोलन में खुद को समर्पित कर दिया। उन्होंने बिहार में असहयोग के कार्यक्रमों का नेतृत्व किया।
उन्होंने राज्य का दौरा किया, सार्वजनिक बैठकों का आयोजन किया और आंदोलन के समर्थन के लिए दिल से भाषण दिया। आंदोलन को जारी रखने के लिए उन्होंने धन का संग्रह किया। उन्होंने लोगों से सरकारी स्कूलों, कॉलेजों और कार्यालयों का बहिष्कार करने का आग्रह किया।
ब्रिटिश प्रायोजित शैक्षिक संस्थानों में भाग लेने के लिए गांधी के बहिष्कार के समर्थन के संकेत के रूप में, डॉ। प्रसाद ने अपने बेटे श्रीमतीनुयायाया प्रसाद को विश्वविद्यालय छोड़ने और बिहार विश्वविद्यालय से जुड़ने के लिए कहा।
1921 में  उन्होंने पटना में नेशनल कॉलेज शुरू किया था। उन्होंने स्वदेशी के विचारों को बरकरार रखा, लोगों को विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने के लिए कहा, साथ ही साथ लोगों से कहा-कताई के पहिये का इस्तेमाल करें  और केवल खादी वस्त्र पहनें।

कृतियाँ

राजेन्द्र बाबू ने अपनी आत्मकथा (1946) के अतिरिक्त कई पुस्तकें भी लिखी जिनमें बापू के कदमों में (1954), इण्डिया डिवाइडेड (1946), सत्याग्रह ऐट चम्पारण (1922), गान्धीजी की देन, भारतीय संस्कृति व खादी का अर्थशास्त्र इत्यादि उल्लेखनीय हैं।

भारत रत्न

सन 1962 में अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें "भारत रत्‍न" की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। यह उस पुत्र के लिये कृतज्ञता का प्रतीक था जिसने अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर
आधी शताब्दी तक अपनी मातृभूमि की सेवा की थी।

निधन

अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर 28 फ़रवरी 1963 में उनके जीवन की कहानी समाप्त हुई। हमको इन पर गर्व है और ये सदा राष्ट्र को प्रेरणा देते रहेंगे।

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