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Wednesday 24 January 2018

Sardar Vallabh Bhai Patel


सरदार वल्लभभाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को नाडियाड ग्राम, गुजरात में हुआ था। उनके पिता जव्हेरभाई पटेल एक साधारण किसान और माता लाडबाई एक गृहिणी थी। बचपन से ही वे परिश्रमी थे, बचपन से ही खेती में अपने पिता की सहायता करते थे। वल्लभभाई पटेल ने पेटलाद की एन.के. हाई स्कूल से शिक्षा ली।1893 में 16 साल की आयु में ही उनका विवाह झावेरबा के साथ कर दिया गया था। उन्होंने अपने विवाह को अपनी पढ़ाई के रास्ते में नहीं आने दिया। स्कूल के दिनों से ही वे हुशार और विद्वान थे। घर की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के बावजूद उनके पिता ने उन्हें 1896 में हाई-स्कूल परीक्षा पास करने के बाद कॉलेज भेजने का निर्णय लिया था लेकिन वल्लभभाई ने कॉलेज जाने से इंकार कर दिया था। इसके बाद लगभग तीन साल तक वल्लभभाई घर पर ही थे और कठिन मेहनत करके बॅरिस्टर की उपाधी संपादन की और साथ ही में देशसेवा में कार्य करने लगे।
नवम्बर 1917 में पहली बार गाँधी जी से सीधे संपर्क में आये। 1918 में अहमदाबाद जिले में अकाल राहत का बहुत व्यवस्थित ढंग से प्रबंधन किया अहमदाबाद Municipal Board से गुजरात सभा को अच्छी धनराशी मंजूर करवाई जिससे इंफ्लुएंजा जैसी महामारी से निपटने के लिए एक अस्थाई हॉस्पिटल स्थापित किया। 1918 में ही सरकार द्वारा अकाल प्रभावित खेड़ा जिले में वसूले जा रहे लैंड रेवेन्यु के विरुद्ध “No-Tax” आन्दोलन का सफल नेतृत्व कर वसूली को माफ़ करवाया. गुजरात सभा को 1919 में गुजरात सूबे की काग्रेस कमिटी में परिवर्तित कर दिया जिसके सचिव पटेल तथा अध्यक्ष महात्मा गाँधी बने।
1920 के असहयोग आन्दोलन में सरदार पटेल ने स्वदेशी खादी, धोती, कुर्ता और चप्पल अपनाये तथा विदेशी कपड़ो की होली जलाई।
सरदार पटेल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई बार जेल के अंदर-बाहर हुए, हालांकि जिस चीज के लिए इतिहासकार हमेशा सरदार वल्लभ भाई पटेल के बारे में जानने के लिए इच्छुक रहते हैं, वह थी उनकी और जवाहरलाल नेहरू की प्रतिस्पर्द्धा। सब जानते हैं कि 1929 के लाहौर अधिवेशन में सरदार पटेल ही गाँधी जी के बाद दूसरे सबसे प्रबल दावेदार थे, किन्तु मुस्लिमों के प्रति सरदार पटेल की हठधर्मिता की वजह से गाँधीजी ने उनसे उनका नाम वापस दिलवा दिया। 1945-1946 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए भी पटेल एक प्रमुख उम्मीदवार थे, लेकिन इस बार भी गाँधीजी के नेहरू प्रेम ने उन्हें अध्यक्ष नहीं बनने दिया।
सरदार वल्लभ भाई पटेल महात्मा गांधीजी के आंदोलनों से काफी प्रभावित थे और गांधीजी के नेतृत्व में आजादी की लडाई में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिये, गांधीजी का कोई भी आन्दोलन जैसे असहयोग आन्दोलन, दांडी यात्रा, भारत छोडो आन्दोलन रहा हो उसमे सरदार वल्लभ भाई पटेल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे जिसके कारण सरदार वल्लभ भाई पटेल अंग्रेजो के आखो की किरकिरी बन चुके थे सरदार वल्लभ भाई पटेल की सबसे बड़ी ताकत उनकी बुलंद आवाज थी जब ये बोलते सभी को एक सूत्र में बाध देते थे
पटेल के अनुसार आज़ाद भारत बिल्कुल नया और सुंदर होना चाहिए। अपने असंख्य योगदान की बदौलत ही देश की जनता ने उन्हें “आयरन मैन ऑफ़ इंडिया – लोह पुरुष” की उपाधि दी थी। इसके साथ ही उन्हें “भारतीय सिविल सर्वेंट के संरक्षक’ भी कहा जाता है। कहा जाता है की उन्होंने ही आधुनिक भारत के सर्विस-सिस्टम की स्थापना की थी।
जब महात्मा गाँधी को गोली मारकर हत्या कर दी गई तो सरदार वल्लभ भाई इस घटना से अत्यधिक छुब्ध हो चुके थे मन ही मन उन्हें बहुत गहरा आघात पंहुचा और फिर 15 दिसम्बर 1950 को मुम्बई में सरदार वल्लभ भाई पटेल को हार्ट अटैक आया और फिर सदा के लिए सरदार वल्लभ भाई पटेल इस दुनिया को छोडकर चले गये सरदार वल्लभभाई पटेल की मृत्यु के बाद भारत ने अपना नेता खो दिया। सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे दूसरे नेता को ढूंढना मुश्किल होगा, जिन्होंने आधुनिक भारत के इतिहास में इतनी सारी भूमिकाएं निभायीं।
सरदार पटेल ने राष्ट्रिय एकता का एक ऐसा स्वरुप दिखाया था जिसके बारे में उस समय में कोई सोच भी नही सकता था। उनके इन्ही कार्यो के कारण उनके जन्मदिन को राष्ट्रिय स्मृति दिवस को राष्ट्रिय एकता दिवस के रूप में मनाया जाता है, इस दिन को भारत सरकार ने 2014 से मनाना शुरू किया था, हर साल 31 अक्टूबर को राष्ट्रिय एकता दिवस मनाया जाता है।

Mother Teresa


मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को स्कॉप्जे (अब मसेदोनिया में) में हुआ। उनके पिता निकोला बोयाजू एक साधारण व्यवसायी थे। मदर टेरेसा का वास्तविक नाम ‘अगनेस गोंझा बोयाजिजू’ था। अलबेनियन भाषा में गोंझा का अर्थ फूल की कली होता है। जब वह मात्र आठ साल की थीं तभी उनके पिता परलोक सिधार गए,  जिसके बाद उनके लालन-पालन की सारी जिम्मेदारी उनकी माता द्राना बोयाजू के ऊपर आ गयी। वह पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं। वह एक सुन्दर, अध्ययनशील एवं परिश्रमी लड़की थीं। पढाई के साथ-साथ, गाना उन्हें बेहद पसंद था। वह और उनकी बहन पास के गिरजाघर में मुख्य गायिका थीं। ऐसा माना जाता है की जब वह मात्र बारह साल की थीं तभी उन्हें ये अनुभव हो गया था कि वो अपना सारा जीवन मानव सेवा में लगायेंगी और 18 साल की उम्र में उन्होंने ‘सिस्टर्स ऑफ़ लोरेटो’ में शामिल होने का फैसला ले लिया। तत्पश्चात वह आयरलैंड गयीं जहाँ उन्होंने अंग्रेजी भाषा सीखी। अंग्रेजी सीखना इसलिए जरुरी था क्योंकि ‘लोरेटो’ की सिस्टर्स इसी माध्यम में बच्चों को भारत में पढ़ाती थीं। टेरेसा आयरलैंड से 6 जनवरी, 1929 को कोलकाता में ‘लोरेटो कॉन्वेंट’ पंहुचीं। वह एक अनुशासित शिक्षिका थीं और विद्यार्थी उनसे बहुत स्नेह करते थे। वर्ष 1944 में वह हेडमिस्ट्रेस बन गईं। उनका मन शिक्षण में पूरी तरह रम गया था पर उनके आस-पास फैली गरीबी, दरिद्रता और लाचारी उनके मन को बहुत अशांत करती थी। उनका भगवान में बहुत भरोसा था। उनके पास बहुत पैसा या संपत्ति नहीं थी लेकिन उनके पास एकाग्रता, विश्वास, भरोसा और ऊर्जा थी जो खुशी से उन्हें गरीब लोगों की मदद करने में सहायता करती थी। निर्धन लोगों की देख-भाल के लिये सड़कों पर लंबी दूरी वो नंगे पैर चलकर तय करती थी। लगातार कार्य और कड़ी मेहनत ने उनको थका दिया था फिर भी वो कभी हार नहीं मानी। 10, सितम्बर 1946 की अपनी अर्न्तआत्मा की आवाज को सुनने के बाद उन्होंने कॉन्वेंट को छोड़ दिया और अति निर्धन लोगों के लिए सेवा कार्य करने का निर्णय किया ।
उन्होंने पटना के अन्दर नर्सिग का प्रशिक्षण लिया और कलकत्ता की गलियों में घूम-घूम कर दया और प्रेम का मिशन प्रारम्भ किया । वह कमजोर त्यागे हुए और मरते हुए लोगों को सहारा देती थीं । उन्होंने कलकत्ता निगम से एक जमीन का टुकड़ा माँगा और उस पर एक धर्मशाला स्थापित की । इस छोटी सी शुरूआत के बाद उन्होंने जो प्रगति की वह अपने आप में महत्त्वपूर्ण थी । उन्होंने 98 स्कूटर, 425 मोबाइल डिस्पेंसरीज, 102 कुष्ठ रोगी, दवाखाना और 48 अनाथालय और 62 ऐसे गृह बनाये जिसमें दरिद्र लोग रह सकें ।
मदर टेरेसा को मानवता की सेवा के लिए अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए। भारत सरकार ने उन्हें  पहले पद्मश्री (1962) और बाद में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ (1980) से अलंकृत किया। संयुक्त राज्य अमेरिका ने उन्हें वर्ष  1985 में मेडल आफ़ फ्रीडम 1985 से नवाजा। मानव कल्याण के लिए किये गए कार्यों की वजह से मदर टेरेसा को 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला। उन्हें यह पुरस्कार ग़रीबों और असहायों की सहायता करने के लिए दिया गया था। मदर तेरस ने नोबेल पुरस्कार की 192,000 डॉलर की धन-राशि को गरीबों के लिए एक फंड के तौर पर इस्तेमाल करने का निर्णय लिया। 09 सितम्बर 2016 को वेटिकन सिटी में पोप फ्रांसिस ने मदर टेरेसा को संत की उपाधि से विभूषित किया।
बढती उम्र के साथ-साथ उनका स्वास्थ्य भी बिगड़ता गया। वर्ष 1983 में 73 वर्ष की आयु में उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा। उस समय मदर टेरेसा रोम में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने के लिए गई थीं। इसके पश्चात वर्ष 1989 में उन्हें दूसरा हृदयाघात आया और उन्हें कृत्रिम पेसमेकर लगाया गया। साल 1991 में मैक्सिको में न्यूमोनिया के बाद उनके ह्रदय की परेशानी और बढ़ गयी। इसके बाद उनकी सेहत लगातार गिरती रही। 13 मार्च 1997 को उन्होंने ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ के मुखिया का पद छोड़ दिया और 5 सितम्बर, 1997 को उनकी मौत हो गई।
 

Rabindranath Tagore


रबीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म भारत के कलकत्ता में 7 मई 1861 को देवेन्द्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के घर हुआ था। उनका जन्म एक समृद्ध और सुसंस्कृत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने घर पर निजी शिक्षकों के माध्यम से प्राप्त की और कभी स्कूल नहीं गये हालांकि उच्च शिक्षा के लिये इंग्लैंड गये थे पर बिना पढ़ाई को पूरा किये वापस भारत लौट आये क्योंकि उन्हें एक कवि और लेखक के रुप में आगे बढ़ना था। टैगोर बचपन से हीं बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। रबीन्द्रनाथ टैगोर की बाल्यकाल से कविताएं और कहानियाँ लिखने में रुचि थी।  उन्होंने अपनी पहली कविता 8 साल की छोटी आयु में हीं लिख डाली थी 1877 में केवल सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी।
लन्दन से वापस आने के पश्चात वर्ष 1883 में उनका विवाह मृणालिनी देवी से हुआ। इंग्लैंड से वापस आने और अपनी शादी के बाद से लेकर सन 1901 तक का अधिकांश समय रबीन्द्रनाथ ने सिआल्दा जो अब बांग्लादेश में  है, स्थित अपने परिवार की जागीर में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ बिताया। यहाँ उन्होंने ने ग्रामीण एवं गरीब जीवन को बहुत पास से देखा। इस बीच तक उन्होंने ग्रामीण बंगाल के पृष्ठभूमि पर आधारित कई लघु कथाएँ लिखीं।
टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की है। रबीन्द्रनाथ  संगीत, बाँग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग है। साहित्य की शायद ही ऐसी कोई विधा हो, जिनमें उनकी रचना न हो कविता, गान, कथा, उपन्यास, नाटक, प्रबन्ध, शिल्पकला सभी विधाओं में उन्होंने रचना की है। उनकी कृतियों में – गीतांजली, गीताली, गीतिमाल्य, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष,, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका,  खेला और क्षणिका आदि शामिल हैं। क़ाबुलीवाला, मास्टर साहब और पोस्टमास्टर उनकी कुछ प्रमुख प्रसिद्ध कहानियाँ है। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया।
उनकी एक और रचना ‘पूरवी’ थी जिसमें उन्होंने सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि जैसे बहुत सारे विषयों के तहत संध्या और सुबह के गीतों को दर्शाया है। 1890 में उनके द्वारा मनासी लिखा गया था जिसमें उन्होंने कुछ सामाजिक और काव्यात्मक कविताओं को संग्रहित किया था। उनके ज़्यादतर लेखन बंगाली लोगों के जीवन पर आधारित होते थे। उनकी एक दूसरी रचना ‘गलपगुच्छा’ थी जिसमें भारतीय लोगों की गरीबी, पिछड़ापन और निरक्षरता पर आधारित कहानियों का संग्रह था। उनकी दूसरी कविता संग्रह जैसे सोनार तारी, कल्पना, चित्रा, नैवेद्या आदि और गोरा, चित्रांगदा और मालिनी, बिनोदिनी और नौका डुबाई, राजा और रानी आदि जैसे उपन्यास हैं। वो बहुत ही धार्मिक और आध्यात्मिक पुरुष थे जिन्होंने मुश्किल वक्त़ में दूसरों की बहुत मदद की।
टैगोर को बचपन से ही प्रकृति का सान्निध्य बहुत भाता था। वह हमेशा सोचा करते थे कि प्रकृति के सानिध्य में ही विद्यार्थियों को अध्ययन करना चाहिए। इसी सोच को मूर्तरूप देने के लिए वह 1901 में सियालदह छोड़कर आश्रम की स्थापना करने के लिए शान्तिनिकेतन आ गए। प्रकृति के सान्निध्य में पेड़ों, बगीचों और एक पुस्तकालय के साथ टैगोर ने शान्तिनिकेतन की स्थापना की।
अपने जीवन में उन्होंने कई देशों की यात्रा किया। आइंस्टाइन जैसे महान वैज्ञानिक, रवीन्द्रनाथ टैगोर को ‘‘रब्बी टैगोर’’ के नाम से पुकारते थे। आइंस्टाइन , रबीन्द्रनाथ के प्रसंशक थे। यहूदी धर्म एवं हिब्रू भाषा में ‘‘रब्बी’’ का अर्थ “गुरू’’ अथवा “मेरे गुरु” होता है।
उनकी काव्यरचना गीतांजलि के लिये उन्हे सन् 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।
 रबीन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु लम्बी बीमारी के कारण 7 अगस्त 1941 को कोलकाता में हुई। रबीन्द्रनाथ टैगोर भारत के उन महान विभुतिओं में से एक है जिनका नाम सदैव सुनहरे अक्षरों में हमारे मन मस्तिष्क पर अंकित रहेगा। वे भारत के अनमोल रत्नों में से एक थे।
 

Dr. Bhim Rao Ambedkar


आंबेडकर का जन्म ब्रिटिश भारत के मध्य भारत प्रांत (अब मध्य प्रदेश में) में स्थित नगर सैन्य छावनी महू में हुआ था। वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की 14 वीं व अंतिम संतान थे।  उनका परिवार मराठी था और वो आंबडवे गांव जो आधुनिक महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में है, से संबंधित था। वे हिंदू महार जाति से संबंध रखते थे, जो अछूत कहे जाते थे और उनके साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था। डॉ॰ भीमराव आंबेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत थे और उनके पिता, भारतीय सेना की मऊ छावनी में सेवा में थे और यहां काम करते हुये वो सूबेदार के पद तक पहुँचे थे। उन्होंने मराठी और अंग्रेजी में औपचारिक शिक्षा की डिग्री प्राप्त की थी।
आंबेडकर को गौतम बुद्ध की शिक्षाओं ने प्रभावित किया था। अपनी जाति के कारण उन्हें इसके लिये सामाजिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा था। स्कूली पढ़ाई में सक्षम होने के बावजूद छत्र भीमराव को अस्पृश्यता के कारण अनेका प्रकार की कठनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। रामजी सकपाल ने स्कूल में अपने बेटे भीमराव का उपनाम ‘सकपाल' की बजायं ‘आंबडवेकर' लिखवाया, क्योंकी कोकण प्रांत में लोग अपना उपनाम गांव के नाम से लगा देते थे, इसलिए भीमराव का मूल अंबाडवे गांव से अंबावडेकर उपनाम स्कूल में दर्ज किया। बाद में एक देशस्त ब्राह्मण शिक्षक कृष्णा महादेव आंबेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे, ने उनके नाम से ‘अंबाडवेकर’ हटाकर अपना सरल ‘आंबेडकर’ उपनाम जोड़ दिया।
उन्होंने एलफिन्स्टन हाई स्कूल से 1908 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1908 में, अम्बेडकर को एलफिन्स्टन कॉलेज में अध्ययन करने का अवसर मिला और 1912 में बॉम्बे विश्वविद्यालय से उन्होंने अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में अपनी स्नातक की डिग्री प्राप्त की। सफलतापूर्वक सभी परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने के अलावा अम्बेडकर ने बड़ौदा के गायकवाड़ शासक सहजी राव से एक महीने में 25 रुपये की छात्रवृत्ति प्राप्त की।
अम्बेडकर ने अमरीका में उच्च शिक्षा के लिए उस धन का उपयोग करने का निर्णय लिया। उन्होंने अर्थशास्त्र का अध्ययन करने के लिए न्यूयॉर्क शहर में कोलंबिया विश्वविद्यालय को नामांकित किया। उन्होंने जून 1915 में ‘ इंडियन कॉमर्स’ से मास्टर डिग्री की उपाधि प्राप्त की।
1916 में,  उन्हें लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में नामांकित किया। और उन्होंने “डॉक्टर  थीसिस”, “रुपये की समस्या” : इसका मूल और इसके समाधान” पर काम करना शुरू कर दिया. बॉम्बे के पूर्व गवर्नर लॉर्ड सिडेनहम की मदद से बॉम्बे में सिडेनहैम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स में अंबेडकर राजनीति के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बने। अपने आगे के अध्ययन को जारी रखने के लिए, वह अपने खर्च पर 1920 में इंग्लैंड गए। वहां उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा डी.एस.सी. प्राप्त हुआ।
अंबेडकर ने बॉन, जर्मनी विश्वविद्यालय में, अर्थशास्त्र का अध्ययन करने के लिए कुछ महीने बिताए. उन्होंने 1927 में इकोनॉमिक्स में पीएचडी की डिग्री प्राप्त की। 8 जून, 1927 को, उन्हें कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टरेट से सम्मानित किया गया था।
13 अक्टूबर 1935 को, अम्बेडकर को सरकारी लॉ कॉलेज का प्रधानचार्य नियुक्त किया गया और इस पद पर उन्होने दो वर्ष तक कार्य किया। इसके चलते अंबेडकर बंबई में बस गये, उन्होने यहाँ एक बडे़ घर का निर्माण कराया, जिसमे उनके निजी पुस्तकालय मे 50000 से अधिक पुस्तकें थीं। इसी वर्ष उनकी पत्नी रमाबाई की एक लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई।
1936 में, अम्बेडकर ने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की, जो 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों मे 15 सीटें जीती। उन्होंने अपनी पुस्तक जाति के विनाश भी इसी वर्ष प्रकाशित की जो उनके न्यूयॉर्क मे लिखे एक शोधपत्र पर आधारित थी। इस सफल और लोकप्रिय पुस्तक मे अम्बेडकर ने हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की जोरदार आलोचना की। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गाँधी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की कडी़ निंदा की।
अपने सत्य परंतु विवादास्पद विचारों और गांधी व कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद बी आर अम्बेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, 15 अगस्त 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व मे आई तो उसने अम्बेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त 1947 को, अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। अम्बेडकर ने मसौदा तैयार करने के इस काम मे अपने सहयोगियों और समकालीन प्रेक्षकों की प्रशंसा अर्जित की। इस कार्य में अम्बेडकर का शुरुआती बौद्ध संघ रीतियों और अन्य बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन बहुत काम आया।
सन् 1950 के दशक में भीमराव अम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध भिक्षुओं व विद्वानों के एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका (तब सीलोन) गये। पुणे के पास एक नया बौद्ध विहार को समर्पित करते हुए, डॉ॰ अम्बेडकर ने घोषणा की कि वे बौद्ध धर्म पर एक पुस्तक लिख रहे हैं और जैसे ही यह समाप्त होगी वो औपचारिक रूप से बौद्ध धर्म अपना लेंगे। 1954 में अम्बेडकर ने म्यानमार का दो बार दौरा किया; दूसरी बार वो रंगून मे तीसरे विश्व बौद्ध फैलोशिप के सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये। 1955 में उन्होने 'भारतीय बौद्ध महासभा' या 'बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया' की स्थापना की। उन्होंने अपने अंतिम महान ग्रंथ, 'द बुद्ध एंड हिज़ धम्म' को 1956 में पूरा किया। यह उनकी मृत्यु के पश्चात सन 1957 में प्रकाशित हुआ।
1954 – 55 के बाद से अम्बेडकर मधुमेह और कमजोर दृष्टि सहित गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित थे। 6 दिसंबर, 1956 को  दिल्ली में उनकी अपने घर में मृत्यु हो गई, चूंकि अंबेडकर ने अपना धर्म बौद्ध धर्म को अपनाया था,  इसलिए उनका बौद्ध शैली से अंतिम संस्कार किया गया।
अपने पूरे जीवन के दौरान, वे दलितों और अन्य सामाजिक पिछड़े वर्गों के अधिकारों के लिए लड़े। 1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न, भारत के सर्वोच्च नागरिक के सम्मान से सम्मानित किया गया था।
 

Chandra Shekhar Azad


चन्द्रशेखर आजाद का जन्म भाबरा गाँव (अब चन्द्रशेखर आजादनगर) (वर्तमान अलीराजपुर जिला) में 23 जुलाई सन् 1906 को हुआ था। उनके पूर्वज बदरका (वर्तमान उन्नाव जिला) से थे। आजाद के पिता पण्डित सीताराम तिवारी अकाल के समय अपने पैतृक निवास बदरका को छोड़कर पहले कुछ दिनों मध्य प्रदेश अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते रहे फिर जाकर भाबरा गाँव में बस गये। यहीं बालक चन्द्रशेखर का बचपन बीता। उनकी माँ का नाम जगरानी देवी था। चंद्रशेखर कट्टर सनातन धर्मी ब्राहाण परिवार में पैदा हुए थे । इनके पिता नेक और धर्मनिष्ठ थे और उनमें अपने पांडित्य का कोई अहंकार नहीं था । वे बहुत स्वाभिमानी और दयालु प्रवृति के थे । घोर गरीबी में उन्होंने दिन बितायें थे और इसी कारण चंद्रशेखर की अच्छी शिक्षा नहीं हो पाई, लेकिन पढ़ना – लिखना उन्होंने गाँव के ही एक बुजुर्ग श्री मनोहरलाल त्रिवेदी से सिख लिया था, जो उन्हें घर पर निशुल्क पढ़ाते थे । आजाद का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भाबरा गाँव में बीता अतएव बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष बाण चलाये। इस प्रकार उन्होंने निशानेबाजी बचपन में ही सीख ली थी।    बचपन से ही चंद्रशेखर में भारतमाता को स्वतंत्र कराने की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी।  इसी कारन उन्होनें स्वयं अपना नाम आज़ाद रख लिया था।  आजाद प्रखर देशभक्त थे। काकोरी काण्ड में फरार होने के बाद से ही उन्होंने छिपने के लिए साधु का वेश बनाना बखूबी सीख लिया था और इसका उपयोग उन्होंने कई बार किया। एक बार वे दल के लिये धन जुटाने हेतु गाज़ीपुर के एक मरणासन्न साधु के पास चेला बनकर भी रहे ताकि उसके मरने के बाद मठ की सम्पत्ति उनके हाथ लग जाये। परन्तु वहाँ जाकर जब उन्हें पता चला कि साधु उनके पहुँचने के पश्चात् मरणासन्न नहीं रहा अपितु और अधिक हट्टा-कट्टा होने लगा तो वे वापस आ गये। प्राय: सभी क्रान्तिकारी उन दिनों रूस की क्रान्तिकारी कहानियों से अत्यधिक प्रभावित थे आजाद भी थे लेकिन वे खुद पढ़ने के बजाय दूसरों से सुनने में ज्यादा आनन्दित होते थे।  1922 में जब गांधीजी ने चंद्रशेखर को असहकार आन्दोलन से निकाल दिया था तब आज़ाद और क्रोधित हो गए थे। तब उनकी मुलाकात युवा क्रांतिकारी प्रन्वेश चटर्जी से हुई जिन्होंने उनकी मुलाकात राम प्रसाद बिस्मिल से करवाई, जिन्होंने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की थी, यह एक क्रांतिकारी संस्था थी। जब आजाद ने एक कंदील पर अपना हाथ रखा और तबतक नही हटाया जबतक की उनकी त्वचा जल ना जाये तब आजाद को देखकर बिस्मिल काफी प्रभावित हुए। इसके बाद चंद्रशेखर आजाद हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के सक्रीय सदस्य बन गए थे और लगातार अपने एसोसिएशन के लिये चंदा इकठ्ठा करने में जुट गए। उन्होंने ज्यादातर चंदा सरकारी तिजोरियो को लूटकर ही जमा किया था। वे एक नये भारत का निर्माण करना चाहते थे जो सामाजिक तत्वों पर आधारित हो।
        आज़ाद ने कुछ समय तक झांसी का अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र बनाया था
झांसी से 15 किलोमीटर की दूरी पर ओरछा के जंगलो में निशानेबाजी का अभ्यास करते रहते थे वो अपने दल के दुसरे सदस्यों को भी निशानेबाजी के लिए प्रशिक्षित करते थे उन्होंने सतर नदी के किनारे स्थित हनुमान मन्दिर के पास एक झोंपड़ी भी बनाई थीआजाद वहा पर पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी के सानिध्य में काफी लम्बे समय तक रहे थे और पास के गाँव धिमारपुरा के बच्चो को पढाया करते थेइसी वजह से उन्होंने स्थानीय लोगो से अच्छे संबंध बना लिए थेमध्य प्रदेश सरकार ने आजाद के नाम पर बाद में इस गाँव का नाम आजादपूरा कर दिया थाहिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना 1924 में बिस्मिल ,चटर्जी ,चीन चन्द्र सान्याल और सचिन्द्र नाथ बक्शी द्वारा की गयी थी1925 में काकोरी कांड के बाद अंग्रेजो ने क्रांतिकारी गतिविधियो पर अंकुश लगा दिया थाइस काण्ड में रामप्रसाद बिस्मिल , अशफाकउल्ला खान , ठाकुर रोशन सिंह और राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को फांसी की सजा हो गयी थी इस काण्ड से चंद्रशेखर आजाद ,केशव चक्रवती और मुरारी शर्मा बच कर निकल गयेचंद्रशेखर आजाद ने बाद में कुछ क्रांतिकारीयो की मदद से हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन को फिर पुनर्गठित कियाचन्द्रशेखर आजाद , भगवती चरण वोहरा का निकट सहयोगी था जिन्होंने 1928 में भगत सिंह ,राजगुरु और सुखदेव की मदद से हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन को हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन में बदल दियाएच०एस०आर०ए० द्वारा किये गये साण्डर्स-वध और दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड में फाँसी की सजा पाये तीन अभियुक्तों- भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर ही दिया था। चन्द्रशेखर आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे उत्तर प्रदेश की हरदोई जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की। आजाद ने पण्डित नेहरू से यह आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र- कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। नेहरू जी ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस भी की। इस पर नेहरू जी ने क्रोधित होकर आजाद को तत्काल वहाँ से चले जाने को कहा तो वे अपने तकियाकलाम 'स्साला' के साथ भुनभुनाते हुए ड्राइँग रूम से बाहर आये और अपनी साइकिल पर बैठकर अल्फ्रेड पार्क की ओर चले गये। अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सी०आई०डी० का एस०एस०पी० नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद को वीरगति प्राप्त हुई। यह दुखद घटना 27 फ़रवरी 1931 के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गयी। पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चन्द्रशेखर आज़ाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था।
चंद्रशेखर आज़ाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे। उन्होंने साहस की नई कहानी लिखी। उनके बलिदान से स्वतंत्रता के लिए जारी आंदोलन और तेज़ हो गया था। हज़ारों युवक स्‍वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे। आज़ाद के शहीद होने के सोलह वर्षों के बाद 15 अगस्त सन 1947 को भारत की आज़ादी का उनका सपना पूरा हुआ था। एक महान स्वतंत्रता सेनानी के रूप में आज़ाद को हमेशा याद किया जायेगा। देश की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन अर्पण करने वाले युवकों में चंद्रशेखर आजाद का नाम सदा अमर रहेगा।

Mahatma Gandhi


महात्मा गांधी जी का जन्म 2 अक्टूबर 1969 में गुजरात के पोरबंदर नामक स्थान पर हुआ था। बापू जी के पिता श्री करमचंद गांधी पोरबंदर के ‘दीवान’ थे और माता का नाम पुतलीबाई था। उनकी माता भक्ति आदि पर ज्यादा जोर देती थी जिसका प्रभाव महात्मा गांधी के जीवन पर भी पड़ा।
उस समय बाल विवाह का प्रचलन था जिस कारण महात्मा गांधी का 13 वर्ष की अल्प आयु में ही सन 1883 में कस्तूरबा माखनजी से विवाह कर दिया। कस्तूरबा को लोग प्यार से बा भी कहते थे।
गांधी जी की प्रारम्भिक शिक्षा पोरबंदर और राजकोट से हुई। इसके बाद उन्होंने भावनगर के सामलदास कॉलेज में दाखिला लिया था और यहां से डिग्री प्राप्त की। इसके बाद वह अपने 19वें जन्मदिन से करीब एक माह पहले ही 4 सितम्बर 1888 को गांधी यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में कानून की पढ़ाई करने और बैरिस्टर बनने के लिए इंग्लैंड चले गये। इंग्लैंड से भारत लौटने के बाद उन्होंने वकालत की प्रैक्टिश करना आरम्भ कर दिया लेकिन उसमें सफल नहीं हुए। इसके बाद उन्हे सन 1893 में दक्षिण अफ्रीका की एक कंपनी में कानूनी सलाहकार के रूप में काम मिला जिसे उन्होंने स्वीकार्य कर लिया। उस वक्त अफ्रीका में बहुत ज्यादा नस्लवाद हो रहा था जिसका सामना गांधी जी को भी करना पड़ा और उनके पास प्रथम श्रेणी कोच का टिकट होने के वाबजूद तीसरी श्रेणी के कोच में भी नहीं जाने दिया और ट्रेन से धक्का मारकर बाहर फेंक दिया गया। महात्मा गांधी जी ने होने वाले अन्याय के खिलाफ ‘अवज्ञा आंदोलन’ चलाया और इसके पूर्ण होने के उपरांत 1915 में भारत लौट आये। बिहार के चम्पारण और गुजरात के खेड़ा में हुए आंदोलनों ने गाँधी को भारत में पहली राजनैतिक सफलता दिलाई। चंपारण में ब्रिटिश ज़मींदार किसानों को खाद्य फसलों की बजाए नील की खेती करने के लिए मजबूर करते थे और सस्ते मूल्य पर फसल खरीदते थे जिससे किसानों की स्थिति बदतर होती जा रही थी।  इस कारण वे अत्यधिक गरीबी से घिर गए। एक विनाशकारी अकाल के बाद अंग्रेजी सरकार ने दमनकारी कर लगा दिए जिनका बोझ दिन प्रतिदिन बढता ही गया। कुल मिलाकर  स्थिति बहुत निराशाजनक थी। गांधीजी ने गांधी जी ने जमींदारों के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन और हड़तालों का नेतृत्व किया जिसके बाद गरीब और किसानों की मांगों को माना गया।सन 1918 में गुजरात स्थित खेड़ा बाढ़ और सूखे की चपेट में आ गया था जिसके कारण किसान और गरीबों की स्थिति बद्तर हो गयी और लोग कर माफ़ी की मांग करने लगे। खेड़ा में गाँधी जी के मार्गदर्शन में सरदार पटेल ने अंग्रेजों के साथ इस समस्या पर विचार विमर्श के लिए किसानों का नेतृत्व किया। इसके बाद अंग्रेजों ने राजस्व संग्रहण से मुक्ति देकर सभी कैदियों को रिहा कर दिया। इस प्रकार चंपारण और खेड़ा के बाद गांधी की ख्याति देश भर में फैल गई और वह स्वतंत्रता आन्दोलन के एक महत्वपूर्ण नेता बनकर उभरे। गाँधी जी का मानना था की भारत में अंग्रेजी हुकुमत भारतियों के सहयोग से ही संभव हो पाई थी और अगर हम सब मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ हर बात पर असहयोग करें तो आजादी संभव है। गाँधी जी की बढती लोकप्रियता ने उन्हें कांग्रेस का सबसे बड़ा नेता बना दिया था और अब वह इस स्थिति में थे कि अंग्रेजों के विरुद्ध असहयोग, अहिंसा तथा शांतिपूर्ण प्रतिकार जैसे अस्त्रों का प्रयोग कर सकें। इसी बीच जलियावांला नरसंहार ने देश को भारी आघात पहुंचाया जिससे जनता में क्रोध और हिंसा की ज्वाला भड़क उठी थी। गांधी जी ने स्वदेशी नीति का आह्वान किया जिसमें विदेशी वस्तुओं विशेषकर अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार करना था। उनका कहना था कि सभी भारतीय अंग्रेजों द्वारा बनाए वस्त्रों की अपेक्षा हमारे अपने लोगों द्वारा हाथ से बनाई गई खादी पहनें। उन्होंने पुरूषों और महिलाओं को प्रतिदिन सूत कातने के लिए कहा। इसके अलावा महात्मा गाँधी ने ब्रिटेन की शैक्षिक संस्थाओं और अदालतों का बहिष्कार, सरकारी नौकरियों को छोड़ने तथा अंग्रेजी सरकार से मिले तमगों और सम्मान को वापस लौटाने का भी अनुरोध किया। असहयोग आन्दोलन को अपार सफलता मिल रही थी जिससे समाज के सभी वर्गों में जोश और भागीदारी बढ गई लेकिन फरवरी 1922 में इसका अंत चौरी-चौरा कांड के साथ हो गया। इस हिंसक घटना के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया। उन्हें गिरफ्तार कर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया जिसमें उन्हें छह साल कैद की सजा सुनाई गयी। ख़राब स्वास्थ्य के चलते उन्हें फरवरी 1924 में सरकार ने रिहा कर दिया।
इसके पश्चात दिसम्बर 1928 के कलकत्ता अधिवेशन में गांधी जी ने अंग्रेजी हुकुमत को भारतीय साम्राज्य को सत्ता प्रदान करने के लिए कहा और ऐसा न करने पर देश की आजादी के लिए असहयोग आंदोलन का सामना करने के लिए तैयार रहने के लिए भी कहा। अंग्रेजों द्वारा कोई जवाब नहीं मिलने पर 31 दिसम्बर 1929 को लाहौर में भारत का झंडा फहराया गया और कांग्रेस ने 26 जनवरी 1930 का दिन भारतीय स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया।
इसके पश्चात गांधी जी ने सरकार द्वारा नमक पर कर लगाए जाने के विरोध में नमक सत्याग्रह चलाया जिसके अंतर्गत उन्होंने 12 मार्च से 6 अप्रेल तक अहमदाबाद से दांडी, गुजरात, तक लगभग 388 किलोमीटर की यात्रा की। इस यात्रा का उद्देश्य स्वयं नमक उत्पन्न करना था। इस यात्रा में हजारों की संख्‍या में भारतीयों ने भाग लिया और अंग्रेजी सरकार को विचलित करने में सफल रहे। इस दौरान सरकार ने लगभग 60 हज़ार से अधिक लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेजा।
द्वितीय विश्व युद्ध के आरंभ में गांधी जी अंग्रेजों को ‘अहिंसात्मक नैतिक सहयोग’ देने के पक्षधर थे परन्तु कांग्रेस के बहुत से नेता इस बात से नाखुश थे कि जनता के प्रतिनिधियों के परामर्श लिए बिना ही सरकार ने देश को युद्ध में झोंक दिया था। गांधी ने घोषणा की कि एक तरफ भारत को आजादी देने से इंकार किया जा रहा था और दूसरी  तरफ लोकतांत्रिक शक्तियों की जीत के लिए भारत को युद्ध में शामिल किया जा रहा था। जैसे-जैसे युद्ध बढता गया गांधी जी और कांग्रेस ने ‘भारत छोड़ो” आन्दोलन की मांग को तीव्र कर दिया। ‘भारत छोड़ो’ स्वतंत्रता आन्दोलन के संघर्ष का सर्वाधिक शक्तिशाली आंदोलन बन गया जिसमें व्यापक हिंसा और गिरफ्तारी हुई। इस संघर्ष में हजारों की संख्‍या में स्वतंत्रता सेनानी या तो मारे गए या घायल हो गए और हजारों गिरफ्तार भी कर लिए गए। गांधी जी ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वह ब्रिटिश युद्ध प्रयासों को समर्थन तब तक नहीं देंगे जब तक भारत को तत्‍काल आजादी न दे दी जाए। उन्होंने यह भी कह दिया था कि व्यक्तिगत हिंसा के बावजूद यह आन्दोलन बन्द नहीं होगा। द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होते-होते ब्रिटिश सरकार ने देश को आज़ाद करने का संकेत दे दिया था। भारत की आजादी के आन्दोलन के साथ-साथ, जिन्ना के नेतृत्व में एक ‘अलग मुसलमान बाहुल्य देश’ (पाकिस्तान) की भी मांग तीव्र हो गयी थी और 40 के दशक में इन ताकतों ने एक अलग राष्ट्र  ‘पाकिस्तान’ की मांग को वास्तविकता में बदल दिया था। गाँधी जी देश का बंटवारा नहीं चाहते थे क्योंकि यह उनके धार्मिक एकता के सिद्धांत से बिलकुल अलग था पर ऐसा हो न पाया और अंग्रेजों ने देश को दो टुकड़ों भारत और पाकिस्तान में विभाजित कर दिया।
महात्मा गांधी 30 जनवरी 1948 को दिल्ली के ‘बिरला हाउस’ में शाम एक सभा को सम्बोधित कर रहे थे तभी नाथूराम गोडसे ने उनके सीने में 3 गोलियां दाग दी जिससे उनकी समय करीब 5.17 पर मृत्यु हो गयी। ऐसा माना जाता है कि जब बापू जी अंतिम सांस ले रहे थे तो उनके मुंह से अंतिम शब्द ’हे राम’ नकला था। नाथूराम गोडसे और उसके सहयोगी पर मुकदमा चलाया गया और 1949 में उन्हे मौत की सजा सुनाई गयी। महात्‍मा गांधी की समाधि दिल्ली के राजघाट में है।
महात्मा गांधी अपने अतुल्य योगदान के लिये ज्यादातर “राष्ट्रपिता और बापू” के नाम से जाने जाते है। वे एक ऐसे महापुरुष थे जो अहिंसा और सामाजिक एकता पर विश्वास करते थे। उन्होंने भारत में ग्रामीण भागो के सामाजिक विकास के लिये आवाज़ उठाई थी, उन्होंने भारतीयों को स्वदेशी वस्तुओ के उपयोग के लिये प्रेरित किया और बहोत से सामाजिक मुद्दों पर भी उन्होंने ब्रिटिशो के खिलाफ आवाज़ उठायी। वे भारतीय संस्कृति से अछूत और भेदभाव की परंपरा को नष्ट करना चाहते थे।

Netaji Subhash Chandra Bose


नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी सन् 1897 को ओड़िशा के कटक शहर में हुआ था। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। पहले वे सरकारी वकील थे मगर बाद में उन्होंने निजी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी। उन्होंने कटक की महापालिका में लम्बे समय तक काम किया था और वे बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे। अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें रायबहादुर का खिताब दिया था। जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 सन्तानें थी जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाष उनकी नौवीं सन्तान और पाँचवें बेटे थे।कटक के प्रोटेस्टेण्ट यूरोपियन स्कूल से प्राइमरी शिक्षा पूर्ण कर 1909 में उन्होंने रेवेनशा कॉलेजियेट स्कूल में दाखिला लिया।1915 में उन्होंने इण्टरमीडियेट की परीक्षा बीमार होने के बावजूद द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। 1916 में जब वे दर्शनशास्त्र (ऑनर्स) में बीए के छात्र थे किसी बात पर प्रेसीडेंसी कॉलेज के अध्यापकों और छात्रों के बीच झगड़ा हो गया सुभाष ने छात्रों का नेतृत्व सम्हाला जिसके कारण उन्हें प्रेसीडेंसी कॉलेज से एक साल के लिये निकाल दिया गया और परीक्षा देने पर प्रतिबन्ध भी लगा दिया। 49वीं बंगाल रेजीमेण्ट में भर्ती के लिये उन्होंने परीक्षा दी किन्तु आँखें खराब होने के कारण उन्हें सेना के लिये अयोग्य घोषित कर दिया गया। किसी प्रकार स्कॉटिश चर्च कॉलेज में उन्होंने प्रवेश तो ले लिया किन्तु मन सेना में ही जाने को कह रहा था। खाली समय का उपयोग करने के लिये उन्होंने टेरीटोरियल आर्मी की परीक्षा दी और फोर्ट विलियम सेनालय में रँगरूट के रूप में प्रवेश पा गये। फिर ख्याल आया कि कहीं इण्टरमीडियेट की तरह बीए में भी कम नम्बर न आ जायें सुभाष ने खूब मन लगाकर पढ़ाई की और 1919 में बीए (ऑनर्स) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। कलकत्ता विश्वविद्यालय में उनका दूसरा स्थान था।पिता की इच्छा थी कि सुभाष आईसीएस बनें किन्तु उनकी आयु को देखते हुए केवल एक ही बार में यह परीक्षा पास करनी थी।15 सितम्बर 1919 को इंग्लैण्ड चले गये। परीक्षा की तैयारी के लिये लन्दन के किसी स्कूल में दाखिला न मिलने पर सुभाष ने किसी तरह किट्स विलियम हाल में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान की ट्राइपास (ऑनर्स) की परीक्षा का अध्ययन करने हेतु उन्हें प्रवेश मिल गया। उन्होंने 1920 में वरीयता सूची में चौथा स्थान प्राप्त करते हुए आईसीएस कि पास कर ली। जून 1921 में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान में ट्राइपास (ऑनर्स) की डिग्री के साथ स्वदेश वापस लौट आये।उसके तत्पश्चात् उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय संग्राम में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया । उन्होंने महात्मा गाँधी के नेतृत्व में देशबंधु चितरंजनदास के सहायक के रूप में कई बार स्वयं को गिरफ्तार कराया । कुछ दिनों के बाद उनका स्वास्थ्य भी गिर गया । परन्तु उनकी दृढ इच्छा शक्ति में कोई अन्तर नहीं आया । उनके अन्दर राष्ट्रीय भावना इतनी जटिल थी कि दूसरे विश्वयुद्ध में उन्होंने भारत छोड़ने का फैसला किया । वह जर्मन चले गए और वहाँ से फिर 1943 में सिंगापुर गए जहाँ उन्होंने इण्डियन नेशनल आर्मी की कमान संभाली । जापान और जर्मनी की सहायता से उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने के लिए एक सेना का गठन किया जिसका नाम उन्होंने ” आजाद हिन्द फौज ” रखा । कुछ ही दिनों में उनकी सेना ने भारत के अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह नागालैण्ड और मणिपुर में आजादी का झण्डा लहराया । किन्तु जर्मनी और जापान की द्वितीय विश्वयुद्ध में हार के बाद आजाद हिन्द फौज को पीछे हटना पड़ा । किन्तु उनकी बहादुरी और हिम्मत यादगार बन गयी । आज भी हम ऐसा विश्वास करते हैं कि भारत को आजादी आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों की बलिदानों के बाद मिली है । ‘जयहिन्द’ का नारा और अभिवादन उन्ही की देंन है। उनकी प्रसिध्द पंक्तियाँ है – “तुम मुझे खून दो, मै तुम्हेँ आजादी दूंगा।” भारत सरकार ने 1992 में सुभाषबाबू को ‘भारतरत्न’ ये सर्वोच्च सम्मान की घोषणा की गयी लेकिन बोस परिवार वालोने वो स्वीकार करने से इन्कार कर दिया।
 

Shaheed Bhagat Singh

 
क्रांतिकारी भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को पंजाब प्रांत, ज़िला-लयालपुर, के बावली गाँव मे हुआ था, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है। पाकिस्तान मे भी भगत सिंह को आज़ादी के दीवाने की तरह याद किया जाता है। भगत सिंह के पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था।ये एक सिख परिवार से थे और इनके परिवार के लोगों में भी देशभक्ति की भावना थी। भगत सिंह के जन्म के समय ही इनके पिता और 2 चाचा जेल से आजाद हुए थे जो पहले से मातृभूमि की आजादी के लिए प्रयास कर रहे थे। बचपन से ही भगत सिंह को देशभक्ति की भावना वाला माहौल मिला और इसी तरह इस भावना ने उनके जेहन में एक गहरी छाप छोड़ी। वीर भगत सिंह सपने में भी देश की आजादी के बारे में सोचा करते। जिस इंसान के अंदर बचपन से ही इतनी देशभक्ति की भावना हो, उससे बड़ा देशभक्त कोई दूसरा हो ही नहीं सकता।इंनके दादा इतने स्वाभिमानी थे कि उन्होंने ब्रिटिश स्कूल में भगत सिंह को पढ़ाने से मना कर दिया तो गाँव के ही आर्य समाज के स्कूल में इनकी बाल्य शिक्षा हुई । 1919 में जब जलियाँ वाला कांड हुआ जिसमें हजारों निहत्थों पर गोलियाँ चलाई गयीं, उन दिनों भगत सिंह मात्र 12 साल के थे इस घटना ने उनके आक्रोश को बहुत बढ़ावा दिया। इसके बाद मात्र 14 साल की उम्र में, जब 20 फरवरी 1921 को गुरुद्वारा नानक साहिब पे लोगों पर गोलियाँ चलाई गयीं तो भगत सिंह ने इसके विरोध में प्रदर्शनकारियों में हिस्सा लिया। एक तरफ जहाँ महात्मा गांधी ने अहिंसा का विचार रखा था वहीं 1922 में जब चौरा चौरी हत्याकांड हुआ तो भगत का खून खौल उठा और उन्होंने मात्र 15 साल की उम्र में युवा क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लिया और ये उस गुट के सरदार भी बने।भगत सिंह के परिवार के लोग महात्मा गाँधी के विचारो से बहुत प्रेरित थे और स्वराज को अहिंसा के माद्यम से पाने को सही मानते थे। वो साथ ही भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस और उनके असहयोग आन्दोलन का भी समर्थन करते थे। पर जब चौरी-चौरा के हिंसक घटनाओं के बाद गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया तब भगत सिंह गाँधी जी से नाराज़ हुए और वो गांधी जी अहिंसा आन्दोलन से अलग हो गए।जब वे अपनी ग्रेजुएशन की पढाई कर रहे थे तो उनके माता-पिता ने उनका विवाह करवाने का सोचा पर उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि – अगर मेरा विवाह गुलाम भारत में हुआ तो मेरी पत्नी की मौत हो जाएगी। उसके बाद वो कानपूर चले गए।जब उनके माता पिता ने उन्हें आश्वासन दिया की वो उनको विवाह के लिए मजबूर नहीं करेंगे तो वो वापस अपने घर लौट गए।वैसे तो भगत सिंह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लिखा करते थे और उनके खिलाफ पर्चे छपवा कर बांटा करते थे पर अकाली आन्दोलन के बाद वो ब्रिटिश सर्कार की नज़र में ज्यादा आये और उन्हें पुलिस ने 1926, लाहौर के बम धमाके मामले में जेल में डाल दिया गया। उन्हें 5 महीने के बाद 60000 रुपए के मुचलके पर छोड़ दिया गया।30 अक्टूबर 1928 को लाला लाजपत राय ने सभी पार्टियों के साथ मिलकर लाहौर रेलवे स्टेशन की और मोर्चा निकाला। यह मोर्चा साइमन कमीशन के विरोध में किया गया था। इस मोर्चे को रोकने के लिए पुलिस ने बहुत ही बुरी तरीके से लाठी चार्ज किया जिसमें लाला लाजपत राय को बहुत ज्यादा चोट लग गयी थी जिसके चलते 17 नवम्बर 1928 को उनकी मृत्यु हो गयी। लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिए भगत सिंह ने जेम्स ए स्कॉट को मारने का योजना बनाया, जो ब्रिटिश सुपरिटेंडेंट ऑफ़ पुलिस था पर गलती से जे पी सॉन्डर्स, असिस्टेंट सुपरिटेंडेंट ऑफ़ पुलिस की मृत्यु हो गयी।भगत सिंह यद्यपि रक्तपात के पक्षधर नहीं थे परन्तु वे वामपंथी (कम्युनिष्ठ ) विचारधारा पर चलते थे, तथा कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से पूरी तरह प्रभावित थे। यही नहीं, वे समाजवाद के पक्के पोषक भी थे। इसी कारण से उन्हें पूँजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थीमजदूर विरोधी ऐसी नीतियों को ब्रिटिश संसद में पारित न होने देना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अँग्रेजों को पता चलना चाहिये कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के प्रति आक्रोश है। ऐसा करने के लिये ही उन्होंने दिल्ली की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की योजना बनायी थी।भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो और अँग्रेजों तक उनकी 'आवाज़' भी पहुँचे। हालाँकि प्रारम्भ में उनके दल के सब लोग ऐसा नहीं सोचते थे पर अन्त में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार 8 अप्रैल 1929 को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था, अन्यथा उसे चोट लग सकती थी। पूरा हाल धुएँ से भर गया। भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो; अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। बम फटने के बाद उन्होंने "इंकलाब-जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद-मुर्दाबाद!" का नारा लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिये। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया।जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल रहे। इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रान्तिकारी विचार व्यक्त करते रहे। जेल में रहते हुए उनका अध्ययन बराबर जारी रहा। उनके उस दौरान लिखे गये लेख व सगे सम्बन्धियों को लिखे गये पत्र आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं। अपने लेखों में उन्होंने कई तरह से पूँजीपतियों को अपना शत्रु बताया है। उन्होंने लिखा कि मजदूरों का शोषण करने वाला चाहें एक भारतीय ही क्यों न हो, वह उनका शत्रु है। उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ? जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने ६४ दिनों तक भूख हडताल की। उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख हड़ताल में अपने प्राण ही त्याग दिये थे। 26 अगस्त, 1930 को अदालत ने भगत सिंह को अपराधी सिद्ध किया। 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत के द्वारा 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई। इसके बाद भगत सिंह की फांसी की माफी के लिए प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई। इसके बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने सजा माफी के लिए 14 फरवरी, 1931 को अपील दायर की कि वह अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए मानवता के आधार पर फांसी की सजा माफ कर दें। भगत सिंह की फांसी की सज़ा माफ़ करवाने हेतु महात्मा गांधी ने 17 फरवरी 1931 को वायसराय से बात की फिर 18 फरवरी, 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के सामने विभिन्न तर्को के साथ सजा माफी के लिए अपील दायर की। यह सब कुछ भगत सिंह की इच्छा के खिलाफ हो रहा था क्यों कि भगत सिंह नहीं चाहते थे कि उनकी सजा माफ की जाए। 23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई। फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले। फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया। कहा जाता है कि भगत सिंह जब पहली बार चन्द्रशेखर आजाद से मिले थे तो इन्होने उनके सामने जलती हुई मोमबत्ती पर हाथ रखकर यह कसम खायी थी कि उनकी आखिरी साँस तक वो देश के लिए कुर्बान होने के लिए समर्पित है | उन्होंने अपना यह वादा पूरा कर दिखाया |