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Monday, 22 January 2018

Pt. Laxmi Narayan Mishra


लक्ष्मी नारायण मिश्र जी का जन्म सन 1903 में उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ ज़िले के बस्ती नामक ग्राम में हुआ था। उन्होंने वर्ष 1928 में अपनी बी.ए. की परीक्षा 'केंद्रीय हिन्दू कॉलेज', काशी से उत्तीर्ण की थी। 18 वर्ष की अवस्था से ही लक्ष्मी नारायण मिश्र साहित्य सृजन की ओर उन्मुख हुए। उनकी 'अंतर्जगत्' (1921-1922 ई.) नामक काव्य रचना उसी समय की है। इसके उपरांत आपकी नाटकीय प्रतिभा का उदय प्रारम्भ हुआ। 'अशोक' उनका पहला नाटक है। प्रलय के पंख पर' और 'अशोक वन' मिश्रजी के दो एकांकी संग्रह हैं। 'प्रलय के पंख पर' नामक एकांकी सग्रह में लेखक की छ: एकांकी संग्रहीत हैं। प्राय: समस्त एकांकी समस्या प्रधान हैं। अधिकांश एकांकी विशुद्धत: नारी समस्या को आधार बनाकर लिखी गई हैं। दो-एक एकांकी ग्रामीण भावभूमि तथा वहाँ के जन-जीवन से उत्पन्न समस्याओं पर लिखी गई हैं। इन दो संग्रहों के अतिरिक्त 'भगवान मनु तथा अन्य एकांकी' भी एक संग्रह है। इसके सभी एकांकी पौराणिक और ऐतिहासिक हैं। 'भगवान् मनु', 'विधायक पराशर', 'याज्ञवल्क्य', 'कौटिल्य', 'आचार्य शंकर', एकांकी के ये नाम ही हिन्दुत्व और भारतीय संस्कृति के ऐसे उज्ज्वल उदाहरण लगते हैं कि हिन्दू मन इनसे सर्वथा अभिभूत हो जाता है। इन एकांकियों की शिल्पविधि पर रेडियो एकांकी कला और उसके शिल्प संगठन का प्रभाव स्पष्ट है। ये एकांकियाँ जयशंकर प्रसाद के नाटकों की भाँति ही पठन-पाठन की सुन्दर सामग्री उपस्थित करती हैं, पर इनका रंगमंचीय पक्ष उतना ही निर्बल और जटिल है।मिश्र जी के एकांकी विषय वस्तु की दृष्टि से पौराणिक, ऐतिहासिक, तथा मनोवैज्ञानिक पृष्ठ भूमि लिए हुए हैं। उनके एकांकियों में पात्र कम संख्या में रहते हैं। वे उनका चरित्रांकन इस प्रकार करते हैं कि वे लेखक के मानसपुत्र न लग कर जीते-जागते और अपने निजी जीवन को जीते हुए लगते हैं। मिश्र जी की सम्वादयोजना सार्थक, आकर्षक, सरल, संक्षिप्त, मर्मस्पर्शी तथा नाटकीय गुणों से परिपूर्ण होती है।

कृतियाँ

नाटक

    अशोक,
    संन्यासी ,
    रक्षा का मन्दिर,
    मुक्तिका रहस्य ,
    आधी रात,
    गरुड़ध्वज ,
    नारद की वीणा,
    वत्सराज और दशाश्वमेध,
    वितस्ता की लहरें,
    चक्रव्युह,
    समाज के स्तम्भ,
    गुड़िया का घर,
    मिस्टर अभिमन्यु,

अन्य रचनाएँ

    अन्तर्जगत् (कविता संग्रह)
    अशोक वन (एकांकी संग्रह)

निधन

लक्ष्मी नारायण मिश्र जी का निधन सन 1987 में हुआ।

Harikrishana Perami


हरिकृष्ण 'प्रेमी' का जन्म 1908 ई. को गुना, ग्वालियर, मध्य प्रदेश में हुआ था। इनका परिवार राष्ट्रभक्त था तथा इनमें बचपन से ही राष्ट्रीयता के संस्कार थे। दो वर्ष की अवस्था में माता की मृत्यु हो गयी थी। प्रेम की अतृप्त तृष्णा ने उन्हें स्वयं 'प्रेमी' बना दिया। बंधु-बांधवों के प्रति स्नेहालु, मित्रों के प्रति अनुरक्त, स्वदेशानुराग, मनुष्य मात्र के प्रति सौहाएद-यही उनके अंतर मन का विकास है।

 भाषा-शैली

भाषा -
हरिकृष्ण 'प्रेमी' सफल नाटककार हैं। आपकी भाषा शुध्द साहित्यिक खड़ी बोली है। आपने अवसर, पात्र, विषय आदि के अनुरूप भाषा का सटीक प्रयोग किया है । आवश्यकतानुसार  आपने अपनी रचनाओं में तत्सम शब्दों के साथ-साथ, तदभव,देशज एवं उर्दू  आदि शब्दों का सुन्दर समावेश किया है। संप्रेषणशीलता आपकी  भाषा की प्रमुख विशेषता है ।

शैली - हरिकृष्ण 'प्रेमी जी ने विविध शैलियों का प्रयोग किया है । इन्होने मुख्यतः गीत नाट्यशैली का सफल प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त संवाद शैली, भावात्मक शैली का भी अपने नाटकों में प्रयोग किया है। 'प्रेमी' जी के नाटकों में स्वच्छंदतावादी शैली का  सयमित एवं अनुशासित प्रयोग हुआ है।

 रचनाएँ - 
 
1.बन्धन  (नाटक )
2. बादलों के पार  (एकांकी )
3. रक्षाबंधन  ( नाटक )


मृत्यु

हरिकृष्ण 'प्रेमी' जी की मृत्यु 1974 ई. में हुई थी।
 

Vishnu Prabhakar


विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून, सन् 1912 को मीरापुर, ज़िला मुज़फ़्फ़रनगर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। इन्हें इनके एक अन्य नाम 'विष्णु दयाल' से भी जाना जाता है। इनके पिता का नाम दुर्गा प्रसाद था, जो धार्मिक विचारधारा वाले व्यक्तित्व के धनी थे। प्रभाकर जी की माता महादेवी पढ़ी-लिखी महिला थीं, जिन्होंने अपने समय में पर्दा प्रथा का घोर विरोध किया था।विष्णु प्रभाकर की आरंभिक शिक्षा मीरापुर में हुई थी। उन्होंने सन् 1929 में चंदूलाल एंग्लो-वैदिक हाई स्कूल, हिसार से मैट्रिक की परीक्षा पास की। इसके उपरांत नौकरी करते हुए पंजाब विश्वविद्यालय से 'भूषण', 'प्राज्ञ', 'विशारद' और 'प्रभाकर' आदि की हिंदी-संस्कृत परीक्षाएँ भी उत्तीर्ण कीं। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से ही बी.ए. की डिग्री भी प्राप्त की थी। रभाकर जी के घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। यही कारण था कि उन्हें काफ़ी कठिनाइयों और समस्याओं का सामना करना पड़ा था। वे अपनी शिक्षा भली प्रकार से प्राप्त नहीं कर पाये थे। अपनी घर की परेशानियों और ज़िम्मेदारियों के बोझ से उन्होंने स्वयं को मज़बूत बना लिया। उन्होंने चतुर्थ श्रेणी की एक सरकारी नौकरी प्राप्त की। इस नौकरी के जरिए पारिश्रमिक रूप में उन्हें मात्र 18 रुपये प्रतिमाह का वेतन प्राप्त होता था। विष्णु प्रभाकर जी ने जो डिग्रियाँ और उच्च शिक्षा प्राप्त की, तथा अपने घर-परिवार की ज़िम्मेदारियों को पूरी तरह निभाया, वह उनके अथक प्रयासों का ही परिणाम था।

प्रमुख कृतियाँ

उपन्यास - ढलती रात, स्वप्नमयी, अर्धनारीश्वर, धरती अब भी घूम रही है, क्षमादान, दो मित्र, पाप का घड़ा, होरी,

नाटक - हत्या के बाद, नव प्रभात, डॉक्टर, प्रकाश और परछाइयाँ, बारह एकांकी, अशोक, अब और नही, टूट्ते परिवेश,

कहानी संग्रह - संघर्ष के बाद, धरती अब भी धूम रही है, मेरा वतन, खिलोने, आदि और अन्त्,

आत्मकथा - पंखहीन नाम से उनकी आत्मकथा तीन भागों में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।

जीवनी - आवारा मसीहा,

यात्रा वृतान्त् - ज्योतिपुन्ज हिमालय, जमुना गन्गा के नैहर मै।

पुरस्कार व सम्मान

विष्णु प्रभाकर जी की प्रमुख रचना 'आवारा मसीहा' सर्वाधिक चर्चित जीवनी है। इस जीवनी रचना के लिए इन्हें 'पाब्लो नेरूदा सम्मान', 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' जैसे कई विदेशी पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। इनका लिखा प्रसिद्ध नाटक 'सत्ता के आर-पार' पर उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 'मूर्ति देवी पुरस्कार' प्रदान किया गया हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा प्रभाकर जी को 'शलाका सम्मान' भी मिल चुका है। 'पद्म भूषण' पुरस्कार भी मिला, किंतु राष्ट्रपति भवन में दुर्व्यवहार के विरोधस्वरूप उन्होंने 'पद्म भूषण' की उपाधि वापस करने घोषणा कर दी।

निधन

भारत के प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकारों में से एक विष्णु प्रभाकर जी का निधन 96 वर्ष की उम्र में 11 अप्रैल, 2009 को नई दिल्ली में हो गया।[2] हिन्दी साहित्य के इस अमूल्य मोती के चले जाने से साहित्य के एक अद्भुत सूरज का अंत हो गया।
 

Upendranath Ashk


उपेन्द्रनाथ अश्क जी का जन्म पंजाब प्रान्त के जालंधर नगर में 14 दिसम्बर, 1910 को एक मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। अश्क जी छ: भाइयों में दूसरे हैं। इनके पिता 'पण्डित माधोराम' स्टेशन मास्टर थे। जालंधर से मैट्रिक और फिर वहीं से डी. ए. वी. कॉलेज से इन्होंने 1931 में बी.ए. की परीक्षा पास की। बचपन से ही अश्क अध्यापक बनने, लेखक और सम्पादक बनने, वक्ता और वकील बनने, अभिनेता और डायरेक्टर बनने और थियेटर अथवा फ़िल्म में जाने के अनेक सपने देखा करते थे।
उपेंद्रनाथ अश्क ने साहित्य की प्राय: सभी विधाओं में लिखा है, लेकिन उनकी मुख्य पहचान एक कथाकार के रूप में ही है। काव्य, नाटक, संस्मरण, उपन्यास, कहानी, आलोचना आदि क्षेत्रों में वे खूब सक्रिय रहे। इनमें से प्राय: हर विधा में उनकी एक-दो महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय रचनाएं होने पर भी वे मुख्यत: कथाकार हैं। उन्होंने पंजाबी में भी लिखा है, हिंदी-उर्दू में प्रेमचंदोत्तर कथा-साहित्य में उनका विशिष्ट योगदान है।

प्रकाशित रचनाएँ

उपन्यास : गिरती दीवारें, शहर में घूमता आईना, गर्म राख, सितारों के खेल, आदि
कहानी संग्रह : सत्तर श्रेष्ठ कहानियां, जुदाई की शाम के गीत, काले साहब, पिंजरा।
नाटक: लौटता हुआ दिन, बड़े खिलाडी, जय-पराजय, स्वर्ग की झलक, भँवर।
एकांकी संग्रह : अन्धी गली, मुखड़ा बदल गया, चरवाहे।
काव्य : एक दिन आकाश ने कहा, प्रातःप्रदीप, दीप जलेगा, बरगद की बेटी, उर्म्मियाँ।
संस्मरण: मण्टो मेरा दुश्मन, फिल्मी जीवन की झलकियाँ
आलोचना: अन्वेषण की सहयात्रा, हिन्दी कहानी: एक अन्तरंग परिचय

सम्मान और पुरस्कार

उपेन्द्रनाथ अश्क जी को सन् 1972 ई. में 'सोवियत लैन्ड नेहरू पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया था। इसके अलावा उपेन्द्रनाथ अश्क को 1965 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।
 
निधन

उपेन्द्रनाथ अश्क जी का 19 जनवरी, सन् 1996 ई. में निधन हो गया था।

Jagdish Chandra Mathur


जगदीशचन्द्र माथुर का जन्म 16 जुलाई, 1917 ई. खुर्जा, बुलंदशहर ज़िला, उत्तर प्रदेश में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा खुर्जा में हुई। उच्च शिक्षा युइंग क्रिश्चियन कॉलेज, इलाहाबाद और प्रयाग विश्वविद्यालय में हुई। प्रयाग विश्वविद्यालय का शैक्षिक वातावरण औऱ प्रयाग के साहित्यिक संस्कार रचनाकार के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका हैं। 1939 ई. में प्रयाग विश्वविद्यालय से एम.ए. (अंग्रेज़ी) करने के बाद 1941 ई. में 'इंडियन सिविल सर्विस' में चुन लिए गए।

साहित्यिक जीवन

अध्ययनकाल से ही उनका लेखन प्रारंभ होता है। आरम्भ से ही आपकी रूचि अभिनय की ओर थी। प्रयाग विश्वविद्यालय में अपने क्षात्र जीवन में आपने विश्वविद्यालय के नाटकों में बार-बार हिस्सा लिया। 1930 ई. में तीन छोटे नाटकों के माध्यम से वे अपनी सृजनशीलता की धारा के प्रति उन्मुख हुए। प्रयाग में उनके नाटक 'चाँद', 'रुपाभ' पत्रिकाओं में न केवल छपे ही, बल्कि इन्होंने 'वीर अभिमन्यु', आदि नाटकों में भाग लिया। 'भोर का तारा' में संग्रहीत सारी रचनाएँ प्रयाग में ही लिखी गईं। यह नाम प्रतीक रूप में शिल्प और संवेदना दोनों दृष्टियों से माथुर के रचनात्मक व्यक्तित्व के 'भोर का तारा' ही है। इसके बाद की रचनाओं में समकालीनता और परंपरा के प्रति गहराई क्रमशः बढ़ती गई है। व्यक्तियों, घटनाओं और देशके विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों से प्राप्त अनुभवों ने सृजन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

प्रमुख कृतियाँ

नाटक

    भोर का तारा' (1946 ई.),
    कोणार्क' (1951 ई.),
    ओ मेरे सपने' (1950 ई.)
    शारदीया' (1959 ईं),
    दस तस्वीरें' (1962 ई.), '
    परंपराशील नाट्य' (1968 ई.),
    पहला राजा' (1970 ई.)
    जिन्होंने जीना जाना' (1972 ई.)


निधन
जगदीशचंद्र माथुर का निधन 14 मई, 1978 को हुआ।

Udyshankar bhatt


उदय शंकर का जन्म 8 दिसम्बर, 1900 ई. को राजस्थान के उदयपुर में हुआ था। वैसे मूलत: वे नरैल (आधुनिक बांगला देश) के एक बंगाली परिवार से ताल्लुक रखते थे। इनके पिता का नाम श्याम शंकर चौधरी और माँ हेमांगिनी देवी थीं। उदय शंकर के पिता अपने समय के प्रसिद्ध वकील थे, जो राजस्थान में ही झालावाड़ के महाराज के यहाँ कार्यरत थे। माँ हेमांगिनी देवी एक बंगाली ज़मींदार परिवार से सम्बन्धित थीं। उदय के पिता को नवाबों द्वारा 'हरचौधरी' की उपाधि दी गई थी, किंतु उन्होंने 'हरचौधरी' में से 'हर' को हटा दिया और अपने नाम के साथ सिर्फ़ 'चौधरी' का प्रयोग करना ही पसन्द किया।उदय शंकर के पिता संस्कृत के माने हुए विद्वान् थे। उन्होंने 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' से स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी। बाद में वे 'ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय' में अध्ययन करने गये और वहाँ वे 'डॉक्टर ऑफ़ फ़िलोसफ़ी' बने। पिता को अपने काम के सिलसिले में बहुत अधिक घूमना पड़ता था, इसलिए परिवार ने अधिकांश समय उदय शंकर के मामा के घर नसरतपुर में उनकी माँ और भाइयों के साथ व्यतीत किया। उदय शंकर की शिक्षा भी विभिन्न स्थानों पर हुई थी, जिनमें नसरतपुर, गाज़ीपुर, वाराणसी और झालावाड़ शामिल हैं। अपने गाज़ीपुर के स्कूल में उदय शंकर ने अपने चित्रकला एवं शिल्पकला के शिक्षक अंबिका चरण मुखोपाध्याय से संगीत और फ़ोटोग्राफ़ी की भी बखूवी शिक्षा हासिल की थी।

उदय शंकर ने भारतीय शास्त्रीय नृत्य के किसी भी स्वरूप में कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया था, उनकी प्रस्तुतियां रचनात्मक थीं। हालांकि कम उम्र से ही वे भारतीय शास्त्रीय और लोक नृत्य शैलियों के संपर्क में आते रहे थे, यूरोप में रहने के दौरान वे बैले से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने दोनों शैलियों के तत्वों को मिलाकर नृत्य की एक नयी शैली की रचना करने का फैसला कर लिया जिसे हाई-डांस (hi-dance) कहा गया।उदय शंकर ने 'भारतीय शास्त्रीय नृत्य' के स्वरूपों और उनके प्रतीकों को नृत्य रूप प्रदान किया। इसके लिए उन्होंने ब्रिटिश संग्रहालय में राजपूत चित्रकला और मुग़ल चित्रकला की शैलियों का गम्भीर अध्ययन किया। इसके अतिरिक्त ब्रिटेन में अपने प्रवास के दौरान वे नृत्य प्रदर्शन करने वाले कई कलाकारों के संपर्क में आये। बाद में वे फ़्राँसीसी सरकार के वजीफे 'प्रिक्स डी रोम' पर कला में उच्च-स्तरीय अध्ययन के लिए वे रोम चले गए। शीघ्र ही इस तरह के कलाकारों के साथ उदय शंकर का संपर्क बढ़ता चला गया। साथ ही भारतीय नृत्य करने को एक समकालीन रूप देने का उनका विचार भी मजबूत हुआ।

कृतियाँ

उदयशंकर भट्ट की रचनाएं हैं - तक्षशिला, राका, मानसी, विसर्जन, अमृत और विष, इत्यादि, युगदीप, यथार्थ और कल्पना, विजयपथ, अन्तर्दर्शन : तीन चित्र, मुझमें जो शेष है(काव्य)।

वह जो मैंने देखा, नए मोड़, सागर, लहरें और मनुष्य, लोक-परलोक, शेष-अशेष (उपन्यास)

पुरस्कार

    1960: संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार - 'क्रिएटिव डांस (रचनात्मक नृत्य)'
    1962: संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप
    1971: पद्म विभूषण
    1975: देसीकोकोट्टम, विश्व भारती विश्वविद्यालय

निधन

'भारतीय शास्त्रीय नृत्य' को विश्व मंच पर ख्याति दिलाने वाले उदय शंकर का निधन 26 सितम्बर, 1977 ई. को कोलकाता में हुआ।

Dr. Ramkumar Verma


डॉ. रामकुमार वर्मा का जन्म मध्य प्रदेश के सागर ज़िले में 15 सितंबर सन् 1905 ई. में हुआ। इनके पिता लक्ष्मी प्रसाद वर्मा डिप्टी कलैक्टर थे। वर्माजी को प्रारम्भिक शिक्षा इनकी माता श्रीमती राजरानी देवी ने अपने घर पर ही दी, जो उस समय की हिन्दी कवयित्रियों में विशेष स्थान रखती थीं। बचपन में इन्हें "कुमार" के नाम से पुकारा जाता था। रामकुमार वर्मा में प्रारम्भ से ही प्रतिभा के स्पष्ट चिह्न दिखाई देते थे। ये सदैव अपनी कक्षा में प्रथम आया करते थे। पठन-पाठन की प्रतिभा के साथ ही साथ रामकुमार वर्मा शाला के अन्य कार्यों में भी काफ़ी सहयोग देते थे। अभिनेता बनने की रामकुमार वर्मा की बड़ी प्रबल इच्छा थी। अतएव इन्होंने अपने विद्यार्थी जीवन में कई नाटकों में एक सफल अभिनेता का कार्य किया है। रामकुमार वर्मा सन् 1922 ई. में दसवीं कक्षा में पहुँचे। इसी समय प्रबल वेग से असहयोग की आँधी उठी और रामकुमार वर्मा राष्ट्र सेवा में हाथ बँटाने लगे तथा एक राष्ट्रीय कार्यकर्ता के रूप में जनता के सम्मुख आये। इसके बाद वर्माजी ने पुनः अध्ययन प्रारम्भ किया और सब परीक्षाओं में सफलता प्राप्त करते हुए प्रयाग विश्वविद्यालय से हिन्दी विषय में एम. ए. में सर्वप्रथम आये। रामकुमार वर्मा ने नागपुर विश्वविद्यालय की ओर से 'हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। अनेक वर्षों तक रामकुमार वर्मा प्रयाग विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक तथा फिर अध्यक्ष रहे हैं।

पुरस्कार

"साहित्य और शिक्षा" की श्रेणी में उनके योगदान के लिए उन्हें 1963 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।

कृतियाँ

    'वीर हमीर' (काव्य-सन 1922 ई.)
    'चित्तौड़ की चिंता' (काव्य सन् 1929 ई.)
    'साहित्य समालोचना' (सन 1929 ई.)
    'अंजलि' (काव्य-सन 1930 ई.)
    'अभिशाप' (कविता-सन 1931 ई.)
    'हिन्दी गीतिकाव्य' (संग्रह-सन 1931 ई.)
    'पृथ्वीराज की आँखें' (एकांकी संग्रह-सन 1938 ई.)
    'कबीर पदावली' (संग्रह सम्पादन-सन 1938 ई.)
    'हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' (सन 1939 ई.)
    'जौहर' (कविता संग्रह- 1941 ई.)
    'रेशमी टाई' (एकांकी संग्रह-सन 1941 ई.)
    'शिवाजी' (सन 1943 ई.)
    'चार ऐतिहासिक एकांकी' (संग्रह-सन 1950 ई.)
    'रूपरंग' (एकांकी संग्रह-सन 1951 ई.)
    'कौमुदी महोत्सव'

निधन

डॉ. रामकुमार वर्मा का निधन 1990 ई. में हुआ

Sunday, 21 January 2018

Mohan Rakesh


मोहन राकेश का जन्म 8 जनवरी, 1925 को अमृतसर, पंजाब में हुआ था। उनके पिता पेशे से वकील थे और साथ ही साहित्य और संगीत के प्रेमी भी थे। पिता की साहित्यिक रुचि का प्रभाव मोहन राकेश पर भी पड़ा। मोहन राकेश ने पहले लाहौर के 'ओरियंटल कॉलेज' से 'शास्त्री' की परीक्षा पास की। किशोरावस्था में सिर से पिता का साया उठने के बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पढ़ाई जारी रखी। इसके बाद उन्होंने 'पंजाब विश्वविद्यालय' से हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम.ए. किया। एक शिक्षक के रूप में पेशेवर ज़िंदगी की शुरुआत करने के साथ ही उनका रुझान लघु कहानियों की ओर हुआ। बाद में उन्होंने कई नाटक और उपन्यास लिखे। बाद में अनेक वर्षों तक दिल्ली, जालंधर, शिमला और मुम्बई में अध्यापन कार्य करते रहे।

प्रमुख कृतियाँ

 मोहन राकेश की रचनाएँ पाठकों और लेखकों के दिलों को छूती हैं। एक बार जो उनकी रचना को पढ़ता है तो वह पूरी तरह से राकेश के शब्दों में डूब जाता है। मोहन राकेश पहले कहानी विधा के ज़रिये हिन्दी में आए। उनकी 'मिसपाल', 'आद्रा', 'ग्लासटैंक', 'जानवर' और 'मलबे का मालिक' आदि कहानियों ने हिन्दी कहानी का परिदृश्य ही बदल दिया। मोहन राकेश को कहानी के बाद सफलता नाट्य-लेखन के क्षेत्र में मिली। हिंदी नाटकों में भारतेंदु और प्रसाद के बाद का दौर मोहन राकेश का दौर है जिसें हिंदी नाटकों को फिर से रंगमंच से जोड़ा। हिन्दी नाट्य साहित्य में भारतेन्दु और प्रसाद के बाद यदि लीक से हटकर कोई नाम उभरता है तो मोहन राकेश का। हालाँकि बीच में और भी कई नाम आते हैं जिन्होंने आधुनिक हिन्दी नाटक की विकास-यात्रा में महत्त्वपूर्ण पड़ाव तय किए हैं; किन्तु मोहन राकेश का लेखन एक दूसरे ध्रुवान्त पर नज़र आता है। इसलिए ही नहीं कि उन्होंने अच्छे नाटक लिखे, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने हिन्दी नाटक को अँधेरे बन्द कमरों से बाहर निकाला और उसे युगों के रोमानी ऐन्द्रजालिक सम्मोहक से उबारकर एक नए दौर के साथ जोड़कर दिखाया।

उपन्यास

अंधेरे बंद कमरे, अन्तराल, न आने वाला कल।

कहानी संग्रह

क्वार्टर तथा अन्य कहानियाँ, पहचान तथा अन्य कहानियाँ, वारिस
तथा अन्य कहानियाँ।

नाटक

अषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे अधूरे।

निबंध संग्रह

परिवेश।

अनुवाद

मृच्छकटिक, शाकुंतल।

निधन

हिन्दी साहित्य जगत् को नई ऊँचाई देने वाले मोहन राकेश का 3 जनवरी, 1972 को नई दिल्ली में आकस्मिक निधन हुआ।

Harishankar Parsai


हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त, 1922 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले में 'जमानी' नामक गाँव में हुआ था। गाँव से प्राम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे नागपुर चले आये थे। 'नागपुर विश्वविद्यालय' से उन्होंने एम. ए. हिंदी की परीक्षा पास की। कुछ दिनों तक उन्होंने अध्यापन कार्य भी किया। इसके बाद उन्होंने स्वतंत्र लेखन प्रारंभ कर दिया। उन्होंने जबलपुर से साहित्यिक पत्रिका 'वसुधा' का प्रकाशन भी किया, परन्तु घाटा होने के कारण इसे बंद करना पड़ा।परसाई मुख्यतः व्यंग -लेखक है, पर उनका व्यंग केवल मनोरजन के लिए नही है। उन्होंने अपने व्यंग के द्वारा बार-बार पाठको का ध्यान व्यक्ति और समाज की उन कमजोरियों और विसंगतियो की ओर आकृष्ट किया है जो हमारे जीवन को दूभर बना रही है। उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं शोषण पर करारा व्यंग किया है जो हिन्दी व्यंग -साहित्य में अनूठा है। परसाई जी अपने लेखन को एक सामाजिक कर्म के रूप में परिभाषित करते है। उनकी मान्यता है कि सामाजिक अनुभव के बिना सच्चा और वास्तविक साहित्य लिखा ही नही जा सकता। परसाई जी मूलतः एक व्यंगकार है। सामाजिक विसंगतियो के प्रति गहरा सरोकार रखने वाला ही लेखक सच्चा व्यंगकार हो सकता है। परसाई जी सामायिक समय का रचनात्मक उपयोग करते है। उनका समूचा साहित्य वर्तमान से मुठभेड़ करता हुआ दिखाई देता है।

प्रमुख रचनाएं

कहानी–संग्रह

हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, भोलाराम का जीव।
   
उपन्यास

रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल।

संस्मरण

तिरछी रेखाएँ।
   
लेख संग्रह

तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेइमानी की परत, अपनी अपनी बीमारी, प्रेमचन्द के फटे जूते, माटी कहे कुम्हार से, काग भगोड़ा, आवारा भीड़ के खतरे, ऐसा भी सोचा जाता है, वैष्णव की फिसलन, पगडण्डियों का जमाना, शिकायत मुझे भी है, सदाचार का ताबीज, विकलांग श्रद्धा का दौर, तुलसीदास चंदन घिसैं, हम एक उम्र से वाकिफ हैं।

सम्मान और पुरस्कार

साहित्य अकादमी पुरस्कार - 'विकलांग श्रद्धा का दौर' के लिए
शिक्षा सम्मान - मध्य प्रदेश शासन द्वारा
डी.लिट् की मानद उपाधि - 'जबलपुर विश्वविद्यालय' द्वारा
शरद जोशी सम्मान

निधन

अपनी हास्य व्यंग्य रचनाओं से सभी के मन को भा लेने वाले हरिशंकर परसाई का निधन 10 अगस्त, 1995 को जबलपुर, मध्य प्रदेश में हुआ। परसाई जी मुख्यतः व्यंग लेखक थे, किंतु उनका व्यंग केवल मनोरंजन के लिए नहीं है। उन्होंने अपने व्यंग के द्वारा बार-बार पाठकों का ध्यान व्यक्ति और समाज की उन कमज़ोरियों और विसंगतियों की ओर आकृष्ट किया था, जो हमारे जीवन को दूभर बना रही हैं।

Hajari Prasad Dwivedi


हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म 19 अगस्त, 1907 (श्रावण, शुक्ल पक्ष, एकादशी, संवत 1964) में बलिया ज़िले के 'आरत दुबे का छपरा' गाँव के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण कुल में हुआ था। उनके पिता पण्डित अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित थे। द्विवेदी जी के प्रपितामह ने काशी में कई वर्षों तक रहकर ज्योतिष का गम्भीर अध्ययन किया था। द्विवेदी जी की माता भी प्रसिद्ध पण्डित कुल की कन्या थीं। इस तरह बालक द्विवेदी को संस्कृत के अध्ययन का संस्कार विरासत में ही मिल गया था।

द्विवेदी जी की प्रमुख रचनाएँ निन्‍म हैं-

आलोचना/साहित्‍येतिहास

सूर साहित्‍य (1936)
हिन्‍दी साहित्‍य की भूमिका (1940)
प्राचीन भारत में कलात्मक विनोद (1940)
कबीर (1942)
नाथ संप्रदाय (1950)
हिन्‍दी साहित्‍य का आदिकाल (1952)
आधुनिक हिन्‍दी साहित्‍य पर विचार (1949)
साहित्‍य का मर्म (1949)
मेघदूत: एक पुरानी कहानी (1957)
लालित्‍य मीमांसा (1962)
साहित्‍य सहचर (1965)
कालिदास की लालित्‍य योजना (1967)
मध्‍यकालीन बोध का स्‍वरूप (1970)
आलोक पर्व (1971)

निबंध संग्रह

अशोक के फूल (1948)
कल्‍पलता (1951)
विचार और वितर्क (1954)
विचार प्रवाह (1959)
कुटज (1964)
आलोक पर्व (1972)

उपन्‍यास

बाणभट्ट की आत्‍मकथा (1947)
चारु चंद्रलेख(1963)
पुनर्नवा(1973)
अनामदास का पोथा(1976)

शैली

द्विवेदी जी की रचनाओं में उनकी शैली के निम्नलिखित रूप मिलते हैं -

(1) गवेषणात्मक शैली - द्विवेदी जी के विचारात्मक तथा आलोचनात्मक निबंध इस शैली में लिखे गए हैं। यह शैली द्विवेदी जी की प्रतिनिधि शैली है। इस शैली की भाषा संस्कृत प्रधान और अधिक प्रांजल है। वाक्य कुछ बड़े-बड़े हैं। इस शैली का एक उदाहरण देखिए - लोक और शास्त्र का समन्वय, ग्राहस्थ और वैराग्य का समन्वय, भक्ति और ज्ञान का समन्वय, भाषा और संस्कृति का समन्वय,निर्गुण और सगुण का समन्वय, कथा और तत्व ज्ञान का समन्वय, ब्राह्मण और चांडाल का समन्वय, पांडित्य और अपांडित्य का समन्वय, रामचरित मानस शुरू से आखिर तक समन्वय का काव्य है।

(2) वर्णनात्मक शैली
- द्विवेदी जी की वर्णनात्मक शैली अत्यंत स्वाभाविक एवं रोचक है। इस शैली में हिंदी के शब्दों की प्रधानता है, साथ ही संस्कृत के तत्सम और उर्दू के प्रचलित शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। वाक्य अपेक्षाकृत बड़े हैं।

(3) व्यंग्यात्मक शैली - द्विवेदी जी के निबंधों में व्यंग्यात्मक शैली का बहुत ही सफल और सुंदर प्रयोग हुआ है। इस शैली में भाषा चलती हुई तथा उर्दू, फारसी आदि के शब्दों का प्रयोग मिलता है।

(4) व्यास शैली - द्विवेदी जी ने जहां अपने विषय को विस्तारपूर्वक समझाया है, वहां उन्होंने व्यास शैली को अपनाया है। इस शैली के अंतर्गत वे विषय का प्रतिपादन व्याख्यात्मक ढंग से करते हैं और अंत में उसका सार दे देते हैं।

उपलब्धियाँ तथा पुरस्कार

प्रमुख रूप से आलोचक, इतिहासकार और निबंधकार के रूप में प्रख्यात द्विवेजी जी की कवि हृदयता यूं तो उनके उपन्यास, निबंध और आलोचना के साथ-साथ इतिहास में भी देखी जा सकती है, लेकिन एक तथ्य यह भी है कि उन्होंने बड़ी मात्रा में कविताएँ लिखी हैं। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी को भारत सरकार ने उनकी विद्वत्ता और साहित्यिक सेवाओं को ध्यान में रखते हुए साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में 1957 में 'पद्म भूषण' से सम्मानित किया था।

मृत्यु

हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी की मृत्यु 19 मई, 1979 ई. में हुई थी।

Kanhaiyalal Mishra


कन्हैयालाल मिश्र का जन्म 29 मई, 1906 ई. में सहारनपुर ज़िले के देवबन्द ग्राम में हुआ था। कन्हैयालाल का मुख्य कार्यक्षेत्र पत्रकारिता था। प्रारम्भ से भी राजनीतिक एवं सामाजिक कार्यों में गहरी दिलचस्पी लेने के कारण कन्हैयालाल को अनेक बार जेल- यात्रा करनी पड़ी। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी कन्हैयालाल ने बराबर कार्य किया है।हिंदी साहित्य और हिंदी पत्रकारिता के माथे पर सांस लेते चंदन शब्दों का तिलक लगाने वाले पद्मश्री कन्हैया लाल मिश्र ’प्रभाकर’ के पास जरूर किसी तांत्रिक-जोगी का दिया हुआ सिद्ध नमक था। तभी तो साधारण बोल-चाल के शब्दों में उस अद्भुत नमक से वे ऐसा स्वाद पैदा कर देते कि पाठक की आंखें और मन कुंभ में गंगास्नान के बाद गंगाघाट पर बैठ प्रसाद ग्रहण करने का सुख पाते।लेखन ’प्रभाकर’ जी के लिये लोक रंजन का माध्यम नहीं था। वे तो लिखते ही थे - नागरिकता के गुणों का विकास करने के लिये ! वे कहते थे - "हमारा काम यह नहीं कि हम विशाल देश में बसे चंद दिमागी अय्याशों का फालतू समय चैन और खुमारी में बिताने के लिये मनोरंजक साहित्य का मयखाना हर समय खुला रखें। हमारा काम तो यह है कि इस विशाल और महान देश के कोने-कोने में फैले जन साधारण के मन में विश्रंखलित वर्तमान के प्रति विद्रोह और भव्य भविष्य के निर्माण की श्रमशील भूख जगायें।प्रभाकर जी जिन आदर्शों का शंख फूंक रहे थे, वे आदर्श स्वयं उन्होंने अपने जीवन में अपनाये थे। युवावस्था में पढ़ाई छोड़, आजादी की लड़ाई में और सुधार आंदोलनों में खुद को समर्पित कर दिया। जेल यात्राएं और विदेशी शासन के हाथों यातनाएं सहीं। उनकी पुस्तक "तपती पगडंडियों पर पदयात्रा" इस सबका लेखा-जोखा है।उनकी कलम की नोक पर आकर शब्दों को जो श्रृंगार मिलता, उससे शब्दों का कायाकल्प हो जाता।आदर्शों का साहित्य रचने वाले प्रभाकर जी ईमानदार लेखक थे। उन्होंने स्पष्ट कहा है - "अपने साहित्य में मैं सबका मित्र हूं पर पत्रकारिता में मैं किसी का मित्र नहीं हुआ - हां, शत्रु भी नहीं ! उनकी पत्रकारिता न दलों में उलझी, न व्यक्तियों में। जो समाज के लिये उपयोगी, उसकी सराहना और जो हानिकारक, उसकी आलोचना। उन्होंने अपनी पत्रकारिता को राजनीति का चारण, समर्थक या विरोधी नहीं बनाया अपितु "राजनीति को सलाह-मशविरा और नेतृत्व" देने वाली बनाया।


रचनाएँ

प्रभाकर की अब तक सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें
    'नयी पीढ़ी, नये विचार' (1950)
    'ज़िन्दगी मुस्कारायी' (1954)
    'माटी हो गयी सोना' (1957), कन्हैयालाल के रेखाचित्रों के संग्रह है।
    'आकाश के तारे- धरती के फूल' (1952) प्रभाकर जी की लघु कहानियों के संग्रह का शीर्षक है।
    'दीप जले, शंख बजे' (1958) में, जीवन में छोटे पर अपने- आप में बड़े व्यक्तियों के संस्मरणात्मक रेखाचित्रों का संग्रह है।
    'ज़िन्दगी मुस्करायी' (1954) तथा
    'बाजे पायलिया के घुँघरू' (1958) नामक संग्रहों में आपके कतिपय छोटे प्रेरणादायी ललित निबन्ध संग्रहीत हैं।

निधन

कन्हैयालाल मिश्र का निधन 9 मई 1995 को हुआ।

Vasudeva Sharan Agarwal


वासुदेव शरण अग्रवाल
जन्म - 7 अगस्त, 1904
जन्म भूमि - ग़ाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु - 26 जुलाई, 1966

जन्म


प्राच्य विद्या के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल का जन्म 7 अगस्त, 1904 ई. को ग़ाज़ियाबाद (उत्तर प्रदेश) के 'खेड़ा' नामक गाँव में हुआ था। इनकी छोटी उम्र में ही इनका माँ का देहांत हो गया था, जिस कारण दादी ने ही उनका लालन-पालन किया।

शिक्षा


जिस समय 1920 में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने 'भारतीय इतिहास' में प्रसिद्ध अपना 'असहयोग आंदोलन' आंरभ किया, उस समय वासुदेव शरण लखनऊ में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। साथ ही वे एक अन्य विद्वान से संस्कृत का विशेष अध्ययन भी कर रहे थे। आंदोलन के प्रभाव से उन्होंने सरकारी विद्यालय छोड़ दिया और खादी के वस्त्र धारण कर लिए। किंतु जब गाँधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया तो उन्होंने फिर औपचारिक शिक्षा आरंभ की और 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' से स्नातक बन कर एम.ए और एलएल. बी. की शिक्षा के लिए लखनऊ आ गए। आगे चलकर इसी विश्वविद्यालय से उन्हें पी.एच.डी. और डी.लिट की उपाधियाँ मिलीं।


शैली


डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल की शैली में उनके व्यक्तित्व की झलक दिखाई पड़ती है । आपकी शैली के प्रमुख रूप निम्नांकित हैं-
1. विचारात्मक शैली - आपके निबंधों में विचारात्मक शैली की प्रधानता है।
2. गवेषणात्मक शैली- आप अन्वेषक थे, पुरातत्व के व्याख्याता थे। आप ने अनेक प्राचीन ग्रंथों, घटनाओं, पात्रों आदि से सम्बंधित निबंधों में गवेषणात्मक शैली का प्रयोग किया।
3. भावात्मक शैली- आपने भाव प्रधान निबंधों में इस शैली का प्रयोग किया है। आपकी भावात्मक शैली का रूप काव्यात्मक है।
4. उध्दरण शैली- आपने अपने निबंधों में अपनी बात को पुष्ट करने के लिए संस्कृत के उध्दरणों का बड़ी कुशलता के साथ उध्दृत किया है।
5. सूत्रात्मक शैली- आपने अपने निबंधों में जीवन के सत्य को उद्घाटित करने हेतु सूत्रात्मक शैली को अपनाया है। इसके अतिरिक्त आपने व्यास एवं सामासिक शैली का भी अपनी रचनाओं में उपयोग किया है।

 कृतियॉं-
निबन्‍ध-लेखन के अतिरिक्‍त उन्‍होंने हिन्‍दी, पालि, प्राकृत और संस्‍कृत के कई ग्रन्‍थों का सम्‍पादन एवं पाठ-शोधन भी किया। डाॅ. अग्रवाल ने पुरातत्‍व को ही अपनप वर्ण्‍य विषय बनाया और निबन्‍धों के माध्‍यम से अपने इन ज्ञान को अभिव्‍यक्‍त किया।

डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल की प्रमुख कृतियॉं

    निबन्‍ध-संग्रह- भारत की एकता, पृथ्‍वीपुत्र, कला और संस्‍कृति, कल्‍पवृक्ष, वाग्‍धारा
    समीक्षा- मलिक मुहम्‍मद जायसीकृत पद्मावत तथा कालिदासकृत मेघदूत की संजीवनल व्‍याखया
    शोध ग्रन्‍थ- पाणिनिकालीन भारत
    सांस्‍कृतिक- भारत की मौलिक एकता, हर्षचरित्र का सांस्‍कृतिक अध्‍ययन
    सम्‍पादन - पोद्दार अभिनन्‍दन ग्रन्‍थ
    अनुवाद- हिन्‍दू सभ्‍यता
    इ‍सके अतिरिक्‍त भारतीय कसीद, मार्कण्‍डेय पुूराण, लोककला निबन्‍धावली अाद‍ि अन्‍य मुख्‍य रचनाऍं है

निधन

वासुदेव शरण अग्रवाल का निधन 26 जुलाई, 1966 को हुआ।

Rambriksh Benipuri


रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म 23 दिसम्बर, 1899 ई. में बेनीपुर नामक गाँव, मुज़फ़्फ़रपुर ज़िला, बिहार में हुआ था। उसी के आधार पर उन्होंने अपना उपनाम 'बेनीपुरी' रखा था। इन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव की पाठशाला में ही पाई थी। बाद में वे आगे की शिक्षा के लिए मुज़फ़्फ़रपुर के कॉलेज में भर्ती हो गए। मैट्रिक पास करने के बाद वे असहयोग आंदोलन में शामिल हो गये।

साहित्यकारों के प्रति सम्मान

रामवृक्ष बेनीपुरी की अनेक रचनाएँ, जो यश कलगी के समान हैं, उनमें 'जय प्रकाश', 'नेत्रदान', 'सीता की माँ', 'विजेता', 'मील के पत्थर', 'गेहूँ और गुलाब' आदि शामिल है। 'शेक्सपीयर के गाँव में' और 'नींव की ईंट', इन लेखों में भी रामवृक्ष बेनीपुरी ने अपने देश प्रेम, साहित्य प्रेम, त्याग की महत्ता और साहित्यकारों के प्रति जो सम्मान भाव दर्शाया है, वह अविस्मरणीय है। इंग्लैण्ड में शेक्सपियर के प्रति जो आदर भाव उन्हें देखने को मिला, वह उन्हें सुखद भी लगा और दु:खद भी। शेक्सपियर के गाँव के मकान को कितनी संभाल, रक्षण-सजावट के साथ संभाला गया है। उनकी कृतियों की मूर्तियाँ बनाकर वहाँ रखी गई हैं, यह सब देख कर वे प्रसन्न हुए थे। पर दु:खी इस बात से हुए कि हमारे देश में सरकार भूषण, बिहारी, सूरदास और जायसी आदि महान साहित्यकारों के जन्म स्थल की सुरक्षा या उन्हें स्मारक का रूप देने का भी प्रयास नहीं करती। उनके मन में अपने प्राचीन महान साहित्यकारों के प्रति अति गहन आदर भाव था। इसी प्रकार 'नींव की ईंट' में भाव था कि जो लोग इमारत बनाने में तन-मन कुर्बान करते हैं, वे अंधकार में विलीन हो जाते हैं। बाहर रहने वाले गुम्बद बनते हैं और स्वर्ण पत्र से सजाये जाते हैं। चोटी पर चढ़ने वाली ईंट कभी नींव की ईंट को याद नहीं करती।


बेनीपुरी जी की रचनाएँ

रामवृक्ष बेनीपुरी की आत्मा में राष्ट्रीय भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी, जिसके कारण आजीवन वह चैन की साँस न ले सके। उनके फुटकर लेखों से और उनके साथियों के संस्मरणों से ज्ञात होता है कि जीवन के प्रारंभ काल से ही क्रान्तिकारी रचनाओं के कारण बार-बार उन्हें कारावास भोगना पड़ता। सन 1942 में "अगस्त क्रांति आंदोलन" के कारण उन्हें हज़ारीबाग़ जेल में रहना पड़ा था। जेलवास में भी वह शान्त नहीं बैठे सकते थे। वे वहाँ जेल में भी आग भड़काने वाली रचनायें लिखते। जब भी वे जेल से बाहर आते, उनके हाथ में दो-चार ग्रन्थों की पाण्डुलिपियाँ अवश्य होती थीं, जो आज साहित्य की अमूल्य निधि बन गई हैं। उनकी अधिकतर रचनाएँ जेल प्रवास के दौरान लिखी गईं।

उपन्यास

पतितों के देश में, आम्रपाली

कहानी संग्रह

माटी की मूरतें

निबंध


चिता के फूल, लाल तारा, कैदी की पत्नी, गेहूँ और गुलाब, जंजीरें और दीवारें

नाटक

सीता का मन, संघमित्रा, अमर ज्योति, तथागत, शकुंतला, रामराज्य, नेत्रदान, गाँवों के देवता, नया समाज, विजेता, बैजू मामा

संपादन

विद्यापति की पदावली

सम्मान

वर्ष 1999 में 'भारतीय डाक सेवा' द्वारा रामवृक्ष बेनीपुरी के सम्मान में भारत का भाषायी सौहार्द मनाने हेतु भारतीय संघ के हिन्दी को राष्ट्रभाषा अपनाने की अर्धशती वर्ष में डाक-टिकटों का एक संग्रह जारी किया। उनके सम्मान में बिहार सरकार द्वारा 'वार्षिक अखिल भारतीय रामवृक्ष बेनीपुरी पुरस्कार' दिया जाता है।

निधन

रामवृक्ष बेनीपुरी जी का निधन 9 सितम्बर, 1968 को मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार में हुआ।

Rahul Sankrityayan


केदारनाथ गोवर्धन पाण्डेय (राहुल सांकृत्यायन)
जन्म – 9 अप्रैल, 1893
जन्मस्थान – उत्तर प्रदेश
पिता – गोवर्धन पाण्डेय
माता – कुलवंती

राहुल सांकृत्यायन का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पंदहा गाँव में 9 अप्रैल 1893 को हुआ था। उनके बाल्यकाल का नाम केदारनाथ पाण्डेय था। उनके पिता गोवर्धन पाण्डेय एक धार्मिक विचारों वाले किसान थे। उनकी माता कुलवंती अपने माता-पिता की अकेली पुत्री थीं। दीप चंद पाठक कुलवंती के छोटे भाई थे। वह अपने माता-पिता के साथ रहती थीं और यहीं राहुल सांकृत्यायन का जन्म हुआ[1] जबकि उनके पिता का निवास स्थान कनैला नामक गाँव में था जो आजमगढ़ जिले की ही अतरौलिया तहसील में स्थित है। बचपन में ही इनकी माता का देहांत हो जाने के कारण इनका पालन-पोषण इनके नाना श्री राम शरण पाठक और नानी ने किया था। 1898 में इन्हे प्राथमिक शिक्षा के लिए गाँव के ही एक मदरसे में भेजा गया। राहुल जी का विवाह बचपन में कर दिया गया। यह विवाह राहुल जी के जीवन की एक संक्रान्तिक घटना थी। जिसकी प्रतिक्रिया में राहुल जी ने किशोरावस्था में ही घर छोड़ दिया। घर से भाग कर ये एक मठ में साधु हो गए। लेकिन अपनी यायावरी स्वभाव के कारण ये वहाँ भी टिक नहीं पाये। चौदह वर्ष की अवस्था में ये कलकत्ता भाग आए। इनके मन में ज्ञान प्राप्त करने के लिए गहरा असंतोष था। इसीलिए यहाँ से वहाँ तक सारे भारत का भ्रमण करते रहे।

साहित्यिक जीवन


अपनी 'जीवन यात्रा' में राहुल जी ने स्वीकार किया है कि उनका साहित्यिक जीवन सन् 1927 से प्रारम्भ होता है। वास्तविक बात तो यह है कि राहुल जी ने किशोरावस्था पार करने के बाद ही लिखना शुरू कर दिया था। जिस प्रकार उनके पाँव नहीं रुके, उसी प्रकार उनके हाथ की लेखनी भी कभी नहीं रुकी। उनकी लेखनी से विभिन्न विषयों पर प्राय: 150 से अधिक ग्रन्थ प्रणीत हुए हैं। प्रकाशित ग्रन्थों की संख्या सम्भवत: 129 है। लेखों, निबन्धों एवं वक्तृतताओं की संख्या हज़ारों में हैं।

कहानियाँ
 
सतमी के बच्चे
वोल्गा से गंगा
बहुरंगी मधुपुरी
कनैला की कथा

उपन्यास


    बाईसवीं सदी
    जीने के लिए
    सिंह सेनापति
    जय यौधेय
    भागो नहीं, दुनिया को बदलो
    मधुर स्वप्न
    राजस्थानी रनिवास
    विस्मृत यात्री
    दिवोदास

आत्मकथा

    मेरी जीवन यात्रा

जीवनियाँ

    लेनिन
    कार्ल मार्क्स
    बचपन की स्मृतियाँ
    अतीत से वर्तमान
    स्तालिन
    वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली
    सिंहल घुमक्कड़ जयवर्धन
    माओ-त्से-तुंग
    घुमक्कड़ स्वामी
    मेरे असहयोग के साथी
    जिनका मैं कृतज्ञ
    सरदार पृथ्वीसिंह
    कप्तान लाल
    सिंहल के वीर पुरुष
    महामानव बुद्ध
    नए भारत के नए नेता

यात्रा साहित्य


    लंका
    जापान
    इरान
    मेरी तिब्बत यात्रा
    तिब्बत में सवा बर्ष
    रूस में पच्चीस मास
    किन्नर देश की ओर
    चीन में क्या देखा
    मेरी लद्दाख यात्रा

पुरस्कार


महापण्डित राहुल सांकृत्यायन को सन् 1958 में 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' और सन् 1963 भारत सरकार द्वारा 'पद्म भूषण' से सम्मानित किया गया।

मृत्यु

राहुल सांकृत्यायन को अपने जीवन के अंतिम दिनों में ‘स्मृति लोप’ जैसी अवस्था से गुजरना पड़ा एवं इलाज हेतु उन्हें मास्को ले जाया गया। मार्च, 1963 में वे पुन: मास्को से दिल्ली आ गए और 14 अप्रैल, 1963 को सत्तर वर्ष की आयु में सन्न्यास से साम्यवाद तक का उनका सफर पूरा हो गया।

 

Dr Sampurnanand


प्रसिद्ध राजनेता और विद्वान डॉ. संपूर्णानंद का जन्म 1 जनवरी, 1889 ई. को वाराणसी में हुआ था। उनके पिता का नाम मुंशी विजयानंद और माता का नाम आनंदी देवी था। पितामह बख्शी सदानंद काशी नरेश के दीवान थे। किनाराम बाबा के आशीर्वाद से सब पुरुषों के नाम के साथ 'आनंद' शब्द लगने लगा। पिता मुंशी विजयानंद सरकारी कर्मचारी थे। संपूर्णानंद जी ने 18 वर्ष की उम्र में बी.एससी. की परीक्षा पास की। अपने अध्यवसाय से इन्होंने फ़ारसी और संस्कृत का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।कुछ दिनों बाद उनकी नियुक्ति डूँगरपुर कॉले, बीकानेर में प्रधानाचार्य के पद पर हुर्इ। सन् 1921 ई. में महात्‍मा गॉंधी के राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन से प्रेरित होकर वे वाराणसी लौट आए और 'ज्ञानमण्‍डल' में काम करने लगे। इन्‍हीं दिनों उन्‍होंने 'मर्यादा' (मासिक) और 'टूडे' (अंग्रेजी दैनिक) का सम्‍पादन भी किया।
उन्‍होंने भारतीय स्‍वतंत्रता संग्राम के अन्‍तर्गत प्रथम पंक्ति के सेनानी के रूप में कार्य किया। स्‍वतंत्रता प्राप्ति के पश्‍चात् वे उत्तर प्रदेश के गृहमंत्री, शिक्षामंत्री और सन् 1955 ई. में मुख्‍यमंत्री बने। बाद में सन् 1962 ई. में राजस्‍थान के राजयपाल नियुक्‍त हुए। सन् 1967 ई. में राज्‍यपाल पद में मुक्‍त होने पर वाराणसी लोैट आए और मृत्‍युपर्यन्‍त काशी विद्यापीठ के कुलपति रहे। 

डॉ.सम्‍पूर्णानन्‍द की प्रसिद्ध कृतियॉं

समाजबाद, आर्यों का आदिदेश, चिद्विलास, गणेश, जीवन और दर्शन, अन्‍तर्राश्‍ट्रीय विधान, पूरुषसूक्‍त, पृथ्‍वी से सप्‍तर्षि मण्‍डल, भारतीय सृष्टिक्रम-विचार, हिन्‍दू देव परिवार का विकास, वेदार्थ प्रवेशिका, चीन की राज्‍यक्रान्ति, भाषा की शक्ति तथा अन्‍य नि बन्‍ध, अन्‍तरिक्ष यात्रा, स्‍फुट विचार, ब्राह्मण सावधान, जयोतिर्विनोद, अधूरी क्रान्ति, भारत के देशी राज्‍य, महात्‍म गॉंधी आदि।
इन ग्रन्‍थों के अतिरिक्‍त सम्‍पूर्णानन्‍द ने सम्राट अशोंक, सम्राट, हर्षवर्धन, चेत सिंह आदि इतिहास-प्रसित्र व्‍यक्यिों तथा महात्‍मा गॉंधी, देशबन्‍धु चितरंजन दास जैसे आधुनिक महापुरुषों की जीवनियॉं तथा अनेक अन्‍य महत्तवपूर्ण ग्रन्‍थर भी लिखे हैं।

डा० सम्पूर्णानन्द जी एक सफल राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ उच्च कोटि साहित्यकार भी थे। इन्होनें हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने में महान योगदान दिया। लेखक के अतिरिक्त वह अच्छे पत्रकार एवं संपादक भी थे। राजनीति में रहते हुए भी डा० सम्पूर्णानन्द जी ने हिन्दी साहित्य की महती सेवा की। भारत सरकार ने 10 जनवरी 1994 में डॉ संपूर्णानंद जी की स्मृति में उनके नाम से 1 रुपय का स्टांप टिकिट निकाला
। 
 
निधन

कुशल तथा निर्भीक राजनेता एवं सर्वतोमुखी प्रतिभा वाले साहित्यकार एवं अध्यापक डॉ. संपूर्णानंद का 10 जनवरी, 1969 को निधन हो गया। 

Sardar Purn Singh


'सरदार पूर्ण सिंह' का जन्म सन् 1881 ई० में ऐबटाबाद जिले के एक गांव में हुआ था, जो अब पकिस्तान में है। इनके पिता का नाम सरदार करतार सिंह भागर था जो एक सरकारी कर्मचारी थे। पूर्ण सिंह अपने माता पिता के ज्येष्ठ पुत्र थे।

शिक्षा

पूर्णसिंह की प्रारंभिक शिक्षा तहसील हवेलियाँ में हुई। यहाँ मस्जिद के मौलवी से उन्होंने उर्दू पढ़ी और सिक्ख धर्मशाला के भाई बेलासिंह से गुरुमुखी सीखी। रावलपिंडी के मिशन हाईस्कूल से 1897 में एंट्रेंस परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। सन 1899 में डी. ए. वी. कॉलेज, लाहौर; 28 सितम्बर, 1900 को वे टोक्यो विश्वविद्यालय, जापान के फैकल्टी ऑफ़ मेडिसिन में औषधि निर्माण संबंधी रसायन का अध्ययन करने के लिये "विशेष छात्र' के रूप में प्रविष्ट हो गए और वहाँ उन्होंने पूरे तीन वर्ष तक अध्ययन किया।

गृहस्थ जीवन

जापान में अध्ययन के दौरान सरदार पूर्ण सिंह की भेंट स्वामी रामतीर्थ से हुई। स्वामी रामतीर्थ से प्रभावित होकर इन्होने वहीं सन्यास ले लिया और भारत लौट आये। स्वामीजी की मृत्यु के बाद इनके विचारों में परिवर्तन हुआ और इन्होने विवाह करके गृहस्थ जीवन व्यतीत करना आरम्भ किया।
सरदार पूर्ण सिंह ने देहरादून में नौकरी कर ली किन्तु अपनी स्वतंत्र प्रकृति के कारण कुछ समय बाद नौकरी छोड़ दी और ग्वालियर चले गए। वहां भी मन न लगने के बाद ये पंजाब के जड़ाबाला नामक ग्राम में जाकर खेती करने लगे।

कृतियां एवं निबंध

पूर्णसिंह ने अंग्रेज़ी, पंजाबी तथा हिंदी में अनेक ग्रंथों की रचना की, जो इस प्रकार हैं-

अंग्रेज़ी कृतियां

‘दि स्टोरी ऑफ स्वामी राम’, ‘दि स्केचेज फ्राम सिक्ख हिस्ट्री', हिज फीट’, ‘शार्ट स्टोरीज’, ‘सिस्टर्स ऑफ दि स्पीनिंग हवील’, ‘गुरु तेगबहादुर’ लाइफ’, प्रमुख हैं।

पंजाबी कृतियां

‘अवि चल जोत’, ‘खुले मैदान’, ‘खुले खुंड’, ‘मेरा सांई’, ‘कविदा दिल कविता’।

हिंदी निबंध

‘सच्ची वीरता’, ‘कन्यादान’, ‘पवित्रता’, ‘आचरण की सभ्यता’, ‘मजदूरी और प्रेम’ तथा अमेरिका का मस्ताना योगी वाल्ट हिवट मैंन।

मृत्यु


नवंबर, 1930 में वे बीमार पड़े, जिससे उन्हें तपेदिक रोग हो गया और 31 मार्च, 1931 को देहरादून में उनका देहांत हो गया।

Dr. Shyam Sundar Das


बाबू श्याम सुंदर दास का जन्म विद्वानों की काशी में 1875 में हुआ था। इनका परिवार लाहौर से आकर काशी में बस गया था और कपड़े का व्यापार करता था। इनके पिता का नाम लाला देवी दास खन्ना था। बनारस के क्वींस कालेज से सन् 1897 में बी. ए. किया। जब इंटर के छात्र थे तभी सन् 1893 में मित्रों के सहयोग से काशी नागरीप्रचारिणी सभा की नींव डाली और 45 वर्षों तक निरंतर उसके संवर्धन में बहुमूल्य योग देते रहे। 1895-96 में "नागरीप्रचारिणी पत्रिका" निकलने पर उसके प्रथम संपादक नियुक्त हुए और बाद में कई बार वर्षों तक उसका संपादन किया। "सरस्वती" के भी आरंभिक तीन वर्षों (1899-1902) तक संपादक रहे। 1899 में हिंदु स्कूल के अध्यापक नियुक्त हुए और कुछ दिनों बाद हिंदू कालेज में अंग्रेजी के जूनियर प्रोफेसर नियुक्त हुए। 1909 में जम्मू महाराज के स्टेट आफिस में काम करने लगे जहाँ दो वर्ष रहे। 1913 से 1921 तक लखनऊ के कालीचरण हाई स्कूल में हेडमास्टर रहे। इनके उद्योग से विद्यालय की अच्छी उन्नति हुई। 1921 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग खुल जाने पर इन्हें अध्यक्ष के रूप में बुलाया गया।

भाषा शैली

श्यामसुंदर दास ने शुद्ध साहित्यिक हिंदी का प्रयोग किया तथा विदेशी शब्दों को भी हिंदी के सांचे में ढाल लिया। इनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम और प्रचलित तद्भव शब्दों की अधिकता है। उर्दू शब्दों को भी ग्रहण करने के पूर्व उन्होंने हिंदी भाषा की प्रकृति के अनुसार उनके रूप और ध्वनि में परिवर्तन किया। उनकी भाषा क्लिष्ट और जटिल नहीं है तथा सर्वत्र सुगठित और सुलझी हुई है। गूढ़ से गूढ़ विषयों के प्रतिपादन में उनकी भाषा सफल रही। भाषा गंभीर और संयत होते हुए भी धारावाहिक प्रवाह लिए हुए है। श्यामसुंदर दास जी ने शैली को भाषा का व्यक्तिगत प्रयोग माना, अतः शैली विषयक उनका मंतव्य भाषा विवेचन के प्रसंग में आ गया है। इनकी शैली में सरलता और सुबोधता का सहज गुण है, जो विषयानुरूप सर्वत्र यथावसर परिवर्तनशील रही। इनके निबंध प्राय: तीन प्रकार के हैं, तदनुरूप इनकी लेखनी शैली भी तीन प्रकार की हो गयी है- व्याख्यात्मक, विचारात्मक और गवेषणात्मक, किन्तु बाबू जी मूलतः व्यास शैली के ही लेखक रहे।

कृतियॉं

निबन्‍ध-संग्रह

'गद्य कुसुमावली' इनके श्रेष्‍ठ निबन्‍धों का संकलन है। 'नागरी प्रचारिणी' पत्रिका में भी इनके अनेक निबन्‍ध प्रकाशित हुए।

समालोचना


गोस्‍वामी तुलसीदास,  भारतेन्‍दु हरिश्‍चन्‍द्र।

समीक्षा ग्रन्‍थ

साहित्‍यालोचन, रूपक रहस्‍य।

इतिहास

साहित्‍य का इतिहास' एवं 'कवियो की खोज आदि में हिन्‍दी साहित्‍य के विकास पर प्रकाश डला गया है।

भाषाविज्ञान

भाषाविज्ञान, हिन्‍दी भाषा का विकास, भाषा रहस्‍य।

सम्‍पादन

हिन्‍दी-कोविद-रत्‍नमाला, हिन्‍दी शब्‍द-सागर, वैज्ञानिक कोश, मनोरंजन पुस्‍तक-माला, नासिकेतोपख्‍यान, पृथ्‍वीराजरासो, इन्‍द्रावती, वनिताविनोद, छत्रप्रकाश, हम्‍मीररासो, शकुन्‍तला नाटक, दीनदयाल गिरि को ग्रन्‍थावली, मेघदूत, परमालरासो, रामचरितमानस, आदि।

निधन


जीवन के अंतिम वर्षों में श्यामसुंदर दास बीमार पड़े तो फिर उठ न सके। सम्वत 2002 (1945 ई.) के लगभग उनका स्वर्गवास हो गया।

Acharya Mahavir Prasad Dwivedi


महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् 1864 ई. में उत्तर प्रदेश के रायबरेली ज़िले के दौलतपुर गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम रामसहाय द्विवेदी था। कहा जाता है कि उन्हें महावीर का इष्ट था, इसीलिए उन्होंने अपने पुत्र का नाम महावीर सहाय रखा।

शिक्षा

महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में ही हुई। प्रधानाध्यापक ने भूल से इनका नाम महावीर प्रसाद लिख दिया था। हिन्दी साहित्य में यह भूल स्थायी बन गयी। तेरह वर्ष की अवस्था में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए यह रायबरेली के ज़िला स्कूल में भर्ती हुए। यहाँ संस्कृत के अभाव में इनको वैकल्पिक विषय फ़ारसी लेना पड़ा। इन्होंने इस स्कूल में ज्यों-त्यों एक वर्ष काटा। उसके बाद कुछ दिनों तक उन्नाव ज़िले के 'रनजीत पुरवा स्कूल' में और कुछ दिनों तक फ़तेहपुर में पढ़ने के बाद यह पिता के पास बम्बई चले गए। बम्बई में इन्होंने संस्कृत, गुजराती, मराठी और अंग्रेज़ी का अभ्यास किया।

भाषा

द्विवेदी जी सरल और सुबोध भाषा लिखने के पक्षपाती थे। उन्होंने स्वयं सरल और प्रचलित भाषा को अपनाया। उनकी भाषा में न तो संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है और न उर्दू-फारसी के अप्रचलित शब्दों की भरमार है वे गृह के स्थान पर घर और उच्च के स्थान पर ऊँचा लिखना अधिक पसंद करते थे। द्विवेदी जी ने अपनी भाषा में उर्दू और फारसी के शब्दों का निस्संकोच प्रयोग किया, किंतु इस प्रयोग में उन्होंने केवल प्रचलित शब्दों को ही अपनाया। द्विवेदी जी की भाषा का रूप पूर्णतः स्थित है। वह शुद्ध परिष्कृत और व्याकरण के नियमों से बंधी हुई है। उनका वाक्य-विन्यास हिंदी को प्रकृति के अनुरूप है कहीं भी वह अंग्रेज़ी या उर्दू के ढंग का नहीं।

शैली

द्विवेदी जी की शैली के मुख्यतः तीन रूप दृष्टिगत होते हैं-

परिचयात्मक शैली

द्विवेदी जी ने नये-नये विषयों पर लेखनी चलाई। विषय नये और प्रारंभिक होने के कारण द्विवेदी जी ने उनका परिचय सरल और सुबोध शैली में कराया। ऐसे विषयों पर लेख लिखते समय द्विवेदी जी ने एक शिक्षक की भांति एक बात को कई बार दुहराया है ताकि पाठकों की समझ में वह भली प्रकार आ जाए। इस प्रकार लेखों की शैली परिचयात्मक शैली है।

आलोचनात्मक शैली


हिंदी भाषा के प्रचलित दोषों को दूर करने के लिए द्विवेदी जी इस शैली में लिखते थे। इस शैली में लिखकर उन्होंने विरोधियों को मुंह-तोड़ उत्तर दिया। यह शैली ओजपूर्ण है। इसमें प्रवाह है और इसकी भाषा गंभीर है। कहीं-कहीं यह शैली ओजपूर्ण न होकर व्यंग्यात्मक हो जाती है। ऐसे स्थलों पर शब्दों में चुलबुलाहट और वाक्यों में सरलता रहती है।

विचारात्मक अथवा गवेषणात्मक शैली


गंभीर साहित्यिक विषयों के विवेचन में द्विवेदी जी ने इस शैली को अपनाया है। इस शैली के भी दो रूप मिलते हैं। पहला रूप उन लेखों में मिलता है जो किसी विवादग्रस्त विषय को लेकर जनसाधारण को समझाने के लिए लिखे गए हैं। इसमें वाक्य छोटे-छोटे हैं। भाषा सरल है। दूसरा रूप उन लेखों में पाया जाता है जो विद्वानों को संबोधित कर लिखे गए हैं।

पद्य (अनुवाद)

विनय विनोद 1889 ई.- भृतहरि के 'वैराग्य शतक' का दोहों में अनुवाद,
विहार वाटिका 1890 ई.- गीत गोविन्द का भावानुवाद,
स्नेह माला 1890 ई.- भृतहरि के 'श्रृंगार शतक' का दोहों में अनुवाद,
श्री महिम्न स्तोत्र 1891 ई.- संस्कृत के 'महिम्न स्तोत्र का संस्कृत वृत्तों में अनुवाद,
गंगा लहरी 1891 ई.- पण्डितराज जगन्नाथ की 'गंगा लहरी' का सवैयों में अनुवाद,
ऋतुतरंगिणी 1891 ई.- कालिदास के 'ऋतुसंहार' का छायानुवाद,
सोहागरात अप्रकाशित- बाइरन के 'ब्राइडल नाइट' का छायानुवाद,
कुमारसम्भवसार 1902 ई.- कालिदास के 'कुमार सम्भवम' के प्रथम पाँच सर्गों का सारांश।

गद्य (अनुवाद)

भामिनी-विलास 1891 ई.- पण्डितराज जगन्नाथ के 'भामिनी विलास' का अनुवाद,
अमृत लहरी 1896 ई.- पण्डितराज जगन्नाथ के 'यमुना स्तोत्र' का भावानुवाद,
बेकन-विचार-रत्नावली 1901 ई.- बेकन के प्रसिद्ध निबन्धों का अनुवाद,
शिक्षा 1906 ई.- हर्बर्ट स्पेंसर के 'एज्युकेशन' का अनुवाद,
'स्वाधीनता' 1907 ई.- जॉन स्टुअर्ट मिल के 'ऑन लिबर्टी' का अनुवाद,
जल चिकित्सा 1907 ई.- जर्मन लेखक लुई कोने की जर्मन पुस्तक के अंग्रेज़ी अनुवाद का अनुवाद,
हिन्दी महाभारत 1908 ई.-'महाभारत' की कथा का हिन्दी रूपान्तर,
रघुवंश 1912 ई.- 'रघुवंश' महाकाव्य का भाषानुवाद,
वेणी-संहार 1913 ई.- संस्कृत कवि भट्टनारायण के 'वेणीसंहार' नाटक का अनुवाद,
कुमार सम्भव 1915 ई.- कालिदास के 'कुमार सम्भव' का अनुवाद,
मेघदूत 1917 ई.- कालिदास के 'मेघदूत' का अनुवाद,
किरातार्जुनीय 1917 ई.- भारवि के 'किरातार्जुनीयम्' का अनुवाद,
प्राचीन पण्डित और कवि 1918 ई.- अन्य भाषाओं के लेखों के आधार पर प्राचीन कवियों और पण्डितों का परिचय,
आख्यायिका सप्तक 1927 ई.- अन्य भाषाओं की चुनी हुई सात आख्यायिकाओं का छायानुवाद

मौलिक पद्य रचनाएँ

देवी स्तुति-शतक 1892 ई.,
कान्यकुब्जावलीव्रतम 1898 ई.,
समाचार पत्र सम्पादन स्तव: 1898 ई.,
नागरी 1900 ई.,
कान्यकुब्ज- अबला-विलाप 1907 ई.,
काव्य मंजूषा 1903 ई.,
सुमन 1923 ई.,
द्विवेदी काव्य-माला 1940 ई.,
कविता कलाप 1909 ई.|

मौलिक गद्य रचनाएँ

तरुणोपदेश (अप्रकाशित),
हिन्दी शिक्षावली तृतीय भाग की समालोचना 1901 ई.,
वैज्ञानिक कोश 1906 ई.,,
'नाट्यशास्त्र' 1912 ई.,
विक्रमांकदेवचरितचर्चा 1907 ई.,
हिन्दी भाषा की उत्पत्ति 1907 ई.,
सम्पत्तिशास्त्र 1907 ई.,
कौटिल्य कुठार 1907 ई.,
कालिदास की निरकुंशता 1912 ई.,
वनिता-विलाप 1918 ई.,
औद्यागिकी 1920 ई.,
रसज्ञ रंजन 1920 ई.,
कालिदास और उनकी कविता 1920 ई.,
सुकवि संकीर्तन 1924 ई.,
अतीत स्मृति 1924 ई.,
साहित्य सन्दर्भ 1928 ई.,
अदभुत आलाप 1924 ई.,
महिलामोद 1925 ई.,
आध्यात्मिकी 1928 ई.,
वैचित्र्य चित्रण 1926 ई.,
साहित्यालाप 1926 ई.,
विज्ञ विनोद 1926 ई.,
कोविद कीर्तन 1928 ई.,
विदेशी विद्वान् 1928 ई.,
प्राचीन चिह्न 1929 ई.,
चरित चर्या 1930 ई.,
पुरावृत्त 1933 ई.,
दृश्य दर्शन 1928 ई.,
आलोचनांजलि 1928 ई.,
चरित्र चित्रण 1929 ई.,
पुरातत्त्व प्रसंग 1929 ई.,
साहित्य सीकर 1930 ई.,
विज्ञान वार्ता 1930 ई.,
वाग्विलास 1930 ई.,
संकलन 1931 ई.,
विचार-विमर्श 1931 ई.

मृत्यु


21 दिसम्बर सन् 1938 ई. को रायबरेली में महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का स्वर्गवास हो गया।

Saturday, 20 January 2018

Shri YasPal


यशपाल का जन्म 3 दिसम्बर 1903 को पंजाब में, फ़ीरोज़पुर छावनी में एक साधारण खत्री परिवार में हुआ था। उनकी माँ श्रीमती प्रेमदेवी वहाँ अनाथालय के एक स्कूल में अध्यापिका थीं। यशपाल के पिता हीरालाल एक साधारण कारोबारी व्यक्ति थे। उनका पैतृक गाँव रंघाड़ था, जहाँ कभी उनके पूर्वज हमीरपुर से आकर बस गए थे। पिता की एक छोटी-सी दुकान थी और उनके व्यवसाय के कारण ही लोग उन्हें ‘लाला’ कहते-पुकारते थे। बीच-बीच में वे घोड़े पर सामान लादकर फेरी के लिए आस-पास के गाँवों में भी जाते थे। अपने व्यवसाय से जो थोड़ा-बहुत पैसा उन्होंने इकट्ठा किया था उसे वे, बिना किसी पुख़्ता लिखा-पढ़ी के, हथ उधारू तौर पर सूद पर उठाया करते थे। अपने परिवार के प्रति उनका ध्यान नहीं था। इसीलिए यशपाल की माँ अपने दो बेटों—यशपाल और धर्मपाल—को लेकर फ़िरोज़पुर छावनी में आर्य समाज के एक स्कूल में पढ़ाते हुए अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के बारे में कुछ अधिक ही सजग थीं। यशपाल के विकास में ग़रीबी के प्रति तीखी घृणा आर्य समाज और स्वाधीनता आंदोलन के प्रति उपजे आकर्षण के मूल में उनकी माँ और इस परिवेश की एक निर्णायक भूमिका रही है। यशपाल के रचनात्मक विकास में उनके बचपन में भोगी गई ग़रीबी की एक विशिष्ट भूमिका थी।

साहित्यिक जीवन

यशपाल में लिखने की प्रवृत्ति विद्यार्थी काल से ही थी, पर उनके क्रान्तिकारी जीवन ने उन्हें अनुभव सम्बद्ध किया, अनेकानेक संघर्षों से जूझने का बल दिया। राजनीतिक तथा साहित्यिक, दोनों क्षेत्रों में वे क्रान्तिकारी हैं। उनके लिए राजनीति तथा साहित्य दोनों साधन हैं और एक ही लक्ष्य की पूर्ति में सहायक हैं। साहित्य के माध्यम से उन्होंने वैचारिक क्रान्ति की भूमिका तैयार करने का प्रयास किया है। विचारों से वे काफ़ी दूर तक मार्क्सवादी हैं, पर कट्टरता से मुक्त होने के कारण इससे उनकी साहित्यिकता को प्राय: क्षति नहीं पहुँची है, उससे वे लाभान्वित ही हुए हैं।

प्रमुख कृतियां

उपन्यास

झूठा सच, दिव्या, देशद्रोही, दादा कामरेड, अमिता, मनुष्य के रूप, मेरी तेरी उसकी बात, क्यों फंसें

कहानी संग्रह

धर्मयुद्ध, पिंजरे की उड़ान, सच बोलने की भूल, फूलो का कुर्ता, ज्ञानदान, भस्मावृत्त चिनगारी

व्यंग्य संग्रह

चक्कर क्लब

संस्मरण

सिंहावलोकन

वैचारिक साहित्य

गांधीवाद की शवपरीक्षा

प्रकाशन व संपादन

विप्लव

पुरस्कार

इनकी साहित्य सेवा तथा प्रतिभा से प्रभावित होकर रीवा सरकार ने 'देव पुरस्कार' (1955), सोवियत लैंड सूचना विभाग ने 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' (1970), हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने 'मंगला प्रसाद पारितोषिक' (1971) तथा भारत सरकार ने 'पद्म भूषण' की उपाधि प्रदान कर इनको सम्मानित किया है।

मृत्यु

यशपाल हिन्दी के अतिशय शक्तिशाली तथा प्राणवान साहित्यकार थे। अपने दृष्टिकोण को व्यक्त करने के लिए उन्होंने साहित्य का माध्यम अपनाया था। लेकिन उनका साहित्य-शिल्प इतना ज़ोरदार है कि विचारों की अभिव्यक्ति में उनकी साहत्यिकता कहीं पर भी क्षीण नहीं हो पाई है। यशपाल जी का सन् 26 दिसंबर, 1976 ई. में निधन हो गया।

Bheeshm Sahani


जन्म

भीष्म साहनी का जन्म 8 अगस्त, सन् 1915 में अविभाजित भारत के रावलपिण्डी में हुआ था। उनके पिता का नाम हरबंस लाल साहनी तथा माता लक्ष्मी देवी थीं। उनके पिता अपने समय के प्रसिद्ध समाजसेवी थे। हिन्दी फ़िल्मों के ख्यातिप्राप्त अभिनेता बलराज साहनी, भीष्म साहनी के बड़े भाई थे। पिता के समाजसेवी व्यक्तित्व का इन पर काफ़ी प्रभाव था।

शिक्षा


भीष्म साहनी की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हिन्दी व संस्कृत में हुई। उन्होंने स्कूल में उर्दू व अंग्रेज़ी की शिक्षा प्राप्त करने के बाद 1937 में 'गवर्नमेंट कॉलेज', लाहौर से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. किया और फिर 1958 में पंजाब विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। वर्तमान समय में प्रगतिशील कथाकारों में साहनी जी का प्रमुख स्थान है।

प्रमुख रचनाएँ


उपन्यास

झरोखे, तमस, बसन्ती, मायादास की माडी, कुन्तो, नीलू निलिमा निलोफर

कहानी संग्रह

मेरी प्रिय कहानियां, भाग्यरेखा, वांगचू, निशाचर

नाटक

हनूश, माधवी , कबीरा खड़ा बजार में, मुआवज़े

आत्मकथा

बलराज माय ब्रदर

बालकथा


गुलेल का खेल

भाषा-शैली


भीष्म साहनी हिन्दी और अंग्रेज़ी के अलावा उर्दू, संस्कृत, रूसी और पंजाबी भाषाओं के अच्छे जानकार थे। वे अपने साहित्य के माध्यम से सामाजिक विषमता व संघर्ष के बन्धनों को तोड़कर आगे बढ़ने का आह्वान करते थे। उनके साहित्य में सर्वत्र मानवीय करुणा, मानवीय मूल्य व नैतिकता विद्यमान है। भीष्म साहनी जी ने साधारण एवं व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग कर अपनी रचनाओं को जनमानस के निकट पहुँचा दिया।