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Friday 19 January 2018

Shri Ram Nath Kovind


रामनाथ कोविंद
जन्म - 1 अक्टूबर 1945

प्रारंभिक जीवन

रामनाथ कोविंद का जन्म 1 अक्टूबर 1945 को भारत के उत्तरप्रदेश राज्य के कानपूर जिले के डेरापुर के परौन्ख गाँव में हुआ था। उनके पिता मैकूलाल एक किसान थे और माता कलावती गृहणी थी। रामनाथ दलित जाती से संबंध रखते है। 1998 से 2002 के बीच हुए बीजेपी दलित मोर्चा के वे अध्यक्ष थे।

कोविंद जी ने कानपूर यूनिवर्सिटी से बैचलर ऑफ़ कॉमर्स और LLB की डिग्री हासिल कर रखी है। राजनीती में आने से पहले कोविंद पेशे से अधिवक्ता थे। 20 मई 1974 को कोविंद ने सविता कोविंद से शादी की थी। उनके एक बेटा, प्रशांत कुमार और एक बेटी स्वाति भी है।

राजनीतिक सफर

रामनाथ ने 1990 में बीजेपी में शामिल होकर लोकसभा चुनाव लड़ा। चुनाव तो हार गए लेकिन 1993 और 1999 में पार्टी ने इन्हें राज्यसभा भेज दिया गया। इस दौरान रामनाथ बीजेपी अनुसूचित मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने। साल 2007 में रामनाथ बोगनीपुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़े लेकिन फिर जीत नहीं सके। इसके बाद उन्हें यूपी बीजेपी संगठन में सक्रिय करके प्रदेश का महामंत्री बनाया गया और फिर बिहार का राज्यपाल बनाया गया।
कोविंद राज्यसभा सदस्य के रूप में अनेक संसदीय समितियों में महत्वपूर्ण पदों पर रहे। खासकर अनुसचित जातिाजनजाति कल्याण सम्बन्धी समिति, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता और कानून एवं न्याय सम्बन्धी संसदीय समितियों में वह सदस्य रहे।

राष्ट्रपति

सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन द्वारा 19 जून 2017 को भारत के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार घोषित किये गए। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने प्रेस कांफ्रेंस करके उनकी उम्मीदवारी की घोषणा की। 20 जुलाई 2017 को राष्ट्रपति के निर्वाचन का परिणाम घोषित हुआ जिसमें कोविंद ने यूपीए की प्रत्याशी मीरा कुमार को लगभग 3 लाख 34 हजार वोटों के अंतर से हराया। भारत के 13 वे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के पश्चात 25 जुलाई 2017 को भारत के 14 वे राष्ट्रपति के रूप में कोविंद ने शपथ ग्रहण की।


Pranab Mukherjee


प्रणव मुखर्जी
जन्म - 11 दिसम्बर, 1955

प्रारम्भिक जीवन

श्री मुखर्जी बंगाल प्रांत के मिराटी गाँव में एक बंगाली परिवार में 11 दिसम्बर, 1955 को पैदा हुए थे। उनके पिता का नाम कामदा किंकर मुखर्जी और माता का नाम राजलक्ष्मी मुखर्जी था। वे सुश्री सुव्रा मुखर्जी के साथ 13 जुलाई, 1957 को परिणय सूत्र में बंधे। उनके दो पुत्र तथा एक लड़की है। पढ़ाई, बागवानी और संगीत उनके मुख्य शौक हैं। उनके पिताजी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य थे तथा उन्होंने 10 वर्षों से ज्यादा का समय जेल में बिताया।

श्री मुखर्जी ने सुरी विद्यासागर कालेज से स्नातकोत्तर की परीक्षा इतिहास और राजनीति शास्त्र जैसे विषयों को लेकर पास की। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एल.एल.बी की पढ़ाई पूरी की और अपनी जिंदगी की शुरूआत डिप्टी एकाउंटेंट जनरल (तार विभाग) में वरीय लिपिक के रूप में शुरू की। उसके बाद उन्होंने पत्रकारिता की परीक्षा भी पास की। उन्होंने बंगाली पब्लिकेशन के लिए भी कार्य किया। वे भारतीय सांख्यिकी विभाग कलकत्ता में चेयरमैन के पद पर भी आसीन हुए। वे रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय और निखिल भारत बंग साहित्य सम्मेलन के चेयरमैन और अध्यक्ष भी रहे। वे बंगिया साहित्य परिषद और विघान मेमोरियल ट्रस्ट के पूर्व ट्रस्टी भी हैं।

राजनीतिक जीवन


प्रणब मुख़र्जी का राजनितिक करियर सन 1969 में प्रारंभ हुआ जब उन्होंने वी.के. कृष्ण मेनन के चुनाव प्रचार (मिदनापुर लोकसभा सीट के लिए उप-चुनाव) का सफल प्रबंधन किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने उनके प्रतिभा को पहचाना और उन्हें भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस में शामिल कर जुलाई 1969 में राज्य सभा का सदस्य बना दिया। इसके बाद मुख़र्जी सन कई बार (1975, 1981, 1993 और 1999) राज्य सभा के लिए चुने गए।
धीरे-धीरे प्रणब मुख़र्जी इंदिरा गाँधी के चहेते बन गए और सन 1973 में केंद्र सरकार के मंत्रिमंडल में शामिल कर लिए गए। सन 1975-77 के आपातकाल के दौरान उनपर गैर-संविधानिक तरीकों का उपयोग करने के आरोप लगे और जनता पार्टी द्वारा गठित ‘शाह आयोग’ ने उन्हें दोषी भी पाया। बाद में प्रणब इन सब आरोपों से पाक-साफ़ निकल आये और सन 1982-84 में देश के वित्त मंत्री रहे। अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने सरकार की वित्तीय दशा दुरुस्त करने में कुछ सफलता पायी। उन्ही के कार्यकाल के दौरान मनमोहन सिंह को रिज़र्व बैंक का गवर्नर बनाया गया।
सन 1980 में वे राज्य सभा में कांग्रेस पार्टी के नेता बनाये गए। इस दौरान मुख़र्जी को सबसे शक्तिशाली कैबिनेट मंत्री माना जाने लगा और प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में वे ही कैबिनेट की बैठकों की अध्यक्षता करते थे।
इसके पश्चात उन्होंने कांग्रेस छोड़ अपने राजनीतिक दल ‘राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस’ का गठन किया पर सन 1989 में उन्होंने अपने दल का विलय कांग्रेस पार्टी में कर दिया। पी.वी. नरसिंह राव सरकार में उनका राजनीतिक कैरियर पुनर्जीवित हो उठा, जब उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया गया और सन 1995 में विदेश मन्त्री के तौर पर नियुक्त किया गया। उन्होंने नरसिंह राव मंत्रिमंडल में 1995 से 1996 तक पहली बार विदेश मन्त्री के रूप में कार्य किया। सन 1997 में प्रणब को उत्कृष्ट सांसद चुना गया।
सन 2004 मं प्रणब ने पहली बार लोकसभा के लिए चुनाव लड़ा और पश्चिम बंगाल के जंगीपुर संसदीय क्षेत्र से जीत हासिल की। सन 2004 से लेकर 2012 में राष्ट्रपति बनने तक प्रणब मुख़र्जी यू.पी.ए. गठबंधन सरकार में कई महत्वपूर्ण भूमिकाओं में नजर आये। इस दौरान वे देश के रक्षा, वित्त और विदेश मंत्री रहे। इसी दौरान मुख़र्जी कांग्रेस संसदीय दल और कांग्रेस विधान दल के मुखिया भी रहे।

सम्मान

न्यूयॉर्क से प्रकाशित पत्रिका, यूरोमनी के एक सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 1984 में दुनिया के पाँच सर्वोत्तम वित्त मन्त्रियों में से एक प्रणव मुखर्जी भी थे।
 उन्हें सन् 1997 में सर्वश्रेष्ठ सांसद का अवार्ड मिला।
वित्त मन्त्रालय और अन्य आर्थिक मन्त्रालयों में राष्ट्रीय और आन्तरिक रूप से उनके नेतृत्व का लोहा माना गया। वह लम्बे समय के लिए देश की आर्थिक नीतियों को बनाने में महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं। उनके नेत़त्व में ही भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के ऋण की 1.1 अरब अमेरिकी डॉलर की अन्तिम किस्त नहीं लेने का गौरव अर्जित किया। उन्हें प्रथम दर्जे का मन्त्री माना जाता है और सन 1980-1985 के दौरान प्रधानमन्त्री की अनुपस्थिति में उन्होंने केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता की।
उन्हें सन् 2008 के दौरान सार्वजनिक मामलों में उनके योगदान के लिए भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण से नवाजा गया।


प्रणब मुखर्जी ने कई कितावें भी लिखी हैं जिनके प्रमुख हैं  मिडटर्म पोल, बियोंड सरवाइवल, ऑफ द ट्रैक- सागा ऑफ स्ट्रगल एंड सैक्रिफाइस, इमर्जिंग डाइमेंशन्स ऑफ इंडियन इकोनॉमी, तथा चैलेंज बिफोर द नेशन।


Pratibha Devi Singh Patil


प्रतिभा देवीसिंह शेखावत
जन्म - 19 दिसम्बर 1934
जन्मस्थान - नाडेगाव, जि .बोदवड, महाराष्ट्र
पिता - नारायण राव पाटिल

प्रारंभिक जीवन

श्रीमति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल (Pratibha Patil) का जन्म 19 दिसम्बर 1934 को महाराष्ट्र के नन्दगांव जिले में हुआ था उन्होंने अपनी आरम्भिक शिक्षा आर.आर.स्कूल , जलगांव एवं स्नातकोत्तर की डिग्री राजनीति विज्ञान एवं अर्थशास्त्र विषयों में मूलजी जेठ कॉलेज से प्राप्त कीतत्पश्चात उन्होंने राजकीय कॉलेज , बम्बई से विधि स्नातक की डिग्री प्राप्त की श्रीमति पाटिल कॉलेज जीवन में खेलकूद प्रतियोगिताओ में सक्रिय भागीदारी निभाती थी स्नातकोत्तर एवं विधि स्नातक अध्ययन के दौरान भी उन्होंने अनेक सम्मानजनक पदक प्राप्त किये

राजनीतिक करियर


प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने 27 साल की उम्र में राजनीतिक करियर की शुरूआत की और वर्ष 1962 के बाद से चुनाव लड़ा, उसमें उन्होंने जीत हासिल की है। वर्ष 1962 से 1985 तक, वह महाराष्ट्र विधानसभा की सदस्य रही थीं और इसी अवधि के दौरान उन्हें शिक्षा, शहरी विकास और आवास, पर्यटन, जन स्वास्थ्य और समाज कल्याण, संसदीय कार्य, सांस्कृतिक मामलों आदि जैसे कई विभागों के मंत्री के रूप में चुना गया था। प्रतिभा देवी सिंह पाटिल को विभिन्न मुख्यमंत्रियों के मंत्रालय में कैबिनेट रैंक के उपमंत्री के लिए पदोन्नत किया गया।
वर्ष 1967 में प्रतिभा देवी सिंह पाटिल पहली बार शिक्षा के लिए उप मंत्री बनी। प्रतिभा देवी सिंह पाटिल विधानसभा के लिए जलगांव या एदलाबाद निर्वाचन क्षेत्र से पुन: निर्वाचित हुई थीं। वर्ष 1985 में प्रतिभा देवी सिंह पाटिल को कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में राज्यसभा के लिए निर्वाचित किया गया और वर्ष 1988 में उन्हें एमपीसीसी प्रमुख (चीफ) के पद पर नियुक्त किया गया, इस पद पर प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने केवल दो वर्षों तक कार्य किया और वर्ष 1991 में उन्हें लोक सभा के लिए निर्वाचित किया गया। वर्ष 1991 से 1996 तक, प्रतिभा देवी सिंह पाटिल अमरावती लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से संसद सदस्य थी। 8 नवम्बर 2004 को प्रतिभा देवी सिंह पाटिल को राजस्थान के 24वें राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया और 2007 तक उस कार्यकाल को संभालने वाली वह पहली महिला बनी।
वर्ष 2007 में प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ा और तीन लाख से अधिक वोटों से अपने प्रतिद्वंदी को हराने के बाद एक विशिष्ट बढ़त के साथ जीत हासिल की।
25 जुलाई 2007 को प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने राष्ट्रपति पद के लिए शपथ ग्रहण की और भारत की प्रथम महिला राष्ट्रपति बनने का पदभार संभाला। प्रतिभा देवी सिंह पाटिल 25 जुलाई 2012 तक इस पद पर कार्यरत रहीं और उसके बाद राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने राष्ट्रपति पद की गद्दी को संभाला।

Thursday 18 January 2018

Dr. Avul Pakir Jainulabdeen Abdul Kalam


डॉ.अवुल पकिर जैनुलअबिदीन अब्दुल कलाम
जन्म - 15 अक्टूबर 1931, रामेश्वरम, तमिलनाडु
मृत्यु - 27 जुलाई, 20 15, शिलोंग, मेघालय

प्रारंभिक जीवन

15 अक्टूबर 1931 को धनुषकोडी गाँव (रामेश्वरम, तमिलनाडु) में एक मध्यमवर्ग मुस्लिम परिवार में इनका जन्म हुआ। इनके पिता जैनुलाब्दीन न तो ज़्यादा पढ़े-लिखे थे, न ही पैसे वाले थे। इनके पिता मछुआरों को नाव किराये पर दिया करते थे। अब्दुल कलाम संयुक्त परिवार में रहते थे। परिवार की सदस्य संख्या का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यह स्वयं पाँच भाई एवं पाँच बहन थे और घर में तीन परिवार रहा करते थे। अब्दुल कलाम के जीवन पर इनके पिता का बहुत प्रभाव रहा। वे भले ही पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उनकी लगन और उनके दिए संस्कार अब्दुल कलाम के बहुत काम आए। पाँच वर्ष की अवस्था में रामेश्वरम के पंचायत प्राथमिक विद्यालय में उनका दीक्षा-संस्कार हुआ था।

वैज्ञानिक जीवन

1962 में वे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन से जुड़े। अब्दुल कलाम को परियोजना महानिदेशक के रूप में भारत का पहला स्वदेशी उपग्रह (एस.एल.वी. तृतीय) प्रक्षेपास्त्र बनाने का श्रेय हासिल हुआ। 1980 में इन्होंने रोहिणी उपग्रह को पृथ्वी की कक्षा के निकट स्थापित किया था। इस प्रकार भारत भी अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष क्लब का सदस्य बन गया। इसरो लॉन्च व्हीकल प्रोग्राम को परवान चढ़ाने का श्रेय भी इन्हें प्रदान किया जाता है। कलाम ने स्वदेशी लक्ष्य भेदी नियंत्रित प्रक्षेपास्त्र (गाइडेड मिसाइल्स) को डिजाइन किया। इन्होंने अग्नि एवं पृथ्वी जैसे प्रक्षेपास्त्रों को स्वदेशी तकनीक से बनाया था। कलाम जुलाई 1992 से दिसम्बर 1999 तक रक्षा मंत्री के विज्ञान सलाहकार तथा सुरक्षा शोध और विकास विभाग के सचिव थे। उन्होंने रणनीतिक प्रक्षेपास्त्र प्रणाली का उपयोग आग्नेयास्त्रों के रूप में किया। इसी प्रकार पोखरण में दूसरी बार परमाणु परीक्षण भी परमाणु ऊर्जा के साथ मिलाकर किया। इस तरह भारत ने परमाणु हथियार के निर्माण की क्षमता प्राप्त करने में सफलता अर्जित की। कलाम ने भारत के विकासस्तर को 2020 तक विज्ञान के क्षेत्र में अत्याधुनिक करने के लिए एक विशिष्ट सोच प्रदान की। यह भारत सरकार के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार भी रहे। 1982 में वे भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान में वापस निदेशक के तौर पर आये और उन्होंने अपना सारा ध्यान "गाइडेड मिसाइल" के विकास पर केन्द्रित किया। अग्नि मिसाइल और पृथवी मिसाइल का सफल परीक्षण का श्रेय काफी कुछ उन्हीं को है। जुलाई 1992 में वे भारतीय रक्षा मंत्रालय में वैज्ञानिक सलाहकार नियुक्त हुये। उनकी देखरेख में भारत ने 1998 में पोखरण में अपना दूसरा सफल परमाणु परीक्षण किया और परमाणु शक्ति से संपन्न राष्ट्रों की सूची में शामिल हुआ।

भारत के राष्ट्रपति

एक रक्षा वैज्ञानिक के तौर पर उनकी उपलब्धियों और प्रसिद्धि के मद्देनज़र एन. डी. ए. की गठबंधन सरकार ने उन्हें वर्ष 2002 में राष्ट्रपति पद का उमीदवार बनाया। उन्होंने अपने प्रतिद्वंदी लक्ष्मी सहगल को भारी अंतर से पराजित किया और 25 जुलाई 2002 को भारत के 11वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लिया। डॉ कलाम देश के ऐसे तीसरे राष्ट्रपति थे जिन्हें राष्ट्रपति बनने से पहले ही भारत रत्न ने नवाजा जा चुका था। इससे पहले डॉ राधाकृष्णन और डॉ जाकिर हुसैन को राष्ट्रपति बनने से पहले ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया जा चुका था।

सम्मानित अवार्ड

पद्म भूषण, 1981
पद्म विभूषण, 1990
भारत रत्न, 1997
वॉन ब्राउन अवार्ड, 2013
साथ ही तमिलनाडू में 15 अक्टूबर को Youth Renaissance Day यानि की युवा पुनर्जागरण दिवस के रूप में मनाया जाता है।

मृत्यु

27 जुलाई, 2015 को भारतीय प्रबंधन संस्थान शिलोंग, मेघालय में उनके एक लेक्चर के दौरान हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हो गयी।

भले ही वे हमें छोड़ कर चले गए पर उन्होंने भारत को जो सफलता और ऊंचाई दिया है उसको पूरा देश ही नहीं विश्व सदा याद रखेगा।

Shankar Dayal Sharma


शंकर दयाल शर्मा
 जन्म - 19 अगस्त 1918
मृत्यु - 26 दिसम्बर 1999

जन्म

शंकर दयाल शर्मा का जन्म 19 अगस्त 1918 को भोपाल में 'दाई का मौहल्ला' में हुआ था। उस समय भोपाल को नवाबों का शहर कहा जाता था। अब यह मध्य प्रदेश में है। इनके पिता का नाम 'पण्डित खुशीलाल शर्मा' था और वह एक प्रसिद्ध वैद्य थे। इनकी माता का नाम 'श्रीमती सुभद्रा देवी' था।

शिक्षा

डॉ शंकरदयाल शर्मा ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय 'दिगम्बर जैन स्कूल' में हासिल की थी। उन्होंने 'सेंट जोंस कॉलेज', आगरा और बाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय और लखनऊ विश्वविद्यालय से एल एल.बी. की उपाधि प्राप्त की थी। आपने अंग्रेज़ी साहित्य और संस्कृत सहित हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधियाँ अर्जित की थीं। उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड गए। वहाँ क़ानून की शिक्षा ग्रहण की और पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। विश्वविद्यालय ने शंकरदयाल शर्मा को 'डॉक्टर आफ लॉ' की मानद विभूति से अलंकृत किया था। कुछ समय तक 'कैम्ब्रिज विश्व विद्यालय' में क़ानून के अध्यापक रहने के बाद आप भारत वापस लौट आए और लखनऊ विश्वविद्यालय में क़ानून का अध्यापन कार्य करते रहे।

विवाह

7 मई 1950 में श्री शंकरदयाल शर्मा का विवाह 'विमला शर्मा' के साथ सम्पन्न हुआ। इनका विवाह जयपुर में सम्पन्न हुआ था। शर्मा दम्पति को दो पुत्र एवं दो पुत्रियों की प्राप्ति हुई। विवाह के बाद विमला शर्मा समाज सेवा के कार्यों में व्यस्त रहती थीं। 1985 में वह उदयपुरा क्षेत्र से मध्य प्रदेश विधानसभा की विधायिका चुनी गईं। इस सीट से यह प्रथम महिला विधायिका निर्वाचित हुई थीं।

राजनैतिक शुरूआत


1940 के दशक में वे भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में शामिल हो गए, इस हेतु उन्होंने कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ले ली, 1952 में भोपाल के मुख्यमंत्री बन गए, इस पद पर 1956 तक रहे जब भोपाल का विलय अन्य राज्यों में कर मध्यप्रदेश की रचना हुई। 1960 के दशक में उन्होंने इंदिरा गांधी को कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व प्राप्त करने में सहायता दी। इंदिरा कैबिनेट में वे संचार मंत्री (1974-1977) रहे, 1971 तथा 1980 में उन्होंने भोपाल से लोक सभा की सीट जीती, इसके बाद उन्होंने कई भूष्नात्मक पदों पर कार्य किया, 1984 से वे राज्यपाल के रूप में आंध्रप्रदेश में नियुक्ति के दौरान दिल्ली में उनकी पुत्री गीतांजली तथा दामाद ललित माकन की हत्या सिख चरमपंथियों ने कर दी, 1985 से 1986 तक वे पंजाब के राज्यपाल रहे, अन्तिम राज्यपाल दायित्व उन्होंने 1986 से 1987 तक महाराष्ट्र में निभाया। इसके बाद उन्हें उप राष्ट्रपति तथा राज्य सभा के सभापति के रूप में चुन लिया गया गया इस पद पर वे 1992 में राष्ट्रपति बनने तक रहे। शर्मा संसदीय मानको का सख्ती से पालन करते थे, राज्य सभा में एक मौके पर वे इसलिए रो पड़े थे कि क्योंकि राज्य सभा के सदस्यों ने एक राजनैतिक मुद्दे पर सदन को जाम कर दिया था। राष्ट्रपति चुनाव उन्होंने जार्ज स्वेल को हरा के जीता था इसमे उन्हें 66% मत मिले थे। अपने अन्तिम कार्य वर्ष में उन्होंने तीन प्रधानमंत्रियो को शपथ दिलाई।

मृत्यु

अपने जीवन के अंतिम पाँच वर्षो में शर्मा गंभीर स्वास्थ समस्या से जूझ रहे थे। 26 दिसम्बर 1999 को उन्हें एक जोरदार दिल का दौरा आया और तुरंत उन्हें नयी दिल्ली के हॉस्पिटल में भर्ती किया गया, जहाँ उनकी मृत्यु हो गयी थी।

Kocheril Raman Narayanan


कोचेरिल रमण नारायण
जन्म - 27 अक्टूबर 1920
निधन - 9 नवंबर 2005

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

के. आर. नारायणन का जन्म 27 अक्टूबर 1920 को केरल के त्रावणकोर में कोच्चि रमन वैद्य और पन्नाथथुरेटेटि पैप्पियाम्मा में हुआ था। उनका जन्म एक बहुत गरीब दलित परिवार में हुआ था और सात भाइयों के बीच में वह चौथे थे। उनके परिवार को उस समय प्रचलित जातिवाद का सामना करना पड़ा।
उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा सरकारी लोअर प्राइमरी स्कूल, कुरिचिथमम से प्राप्त की और बाद में उन्होंने 1931 में उज्जाउर में लेडी ऑफ़ लूर्डेस प्राइमरी स्कूल में दाखिला लिया।  1943 में उन्होंने बीए किया और त्रावणकोर विश्वविद्यालय (वर्तमान में केरल विश्वविद्यालय के रूप में जाना जाता है) से अंग्रेजी साहित्य में, एम ए किया। उन्होंने विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया और त्रावणकोर में प्रथम श्रेणी में डिग्री प्राप्त करने वाले, पहले दलित बन गये।

राजनीतिक करियर

1984 में, इंदिरा गांधी के अनुरोध पर नारायणन ने चुनावी राजनीति में प्रवेश किया और 1984, 1989 और 1991 में केरल के ओट्टापलम निर्वाचन क्षेत्र से संसद में तीन बार चुने गए। उन्होंने
राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में राज्य मंत्री के रूप में भी सेवा की। उन्होंने 1985 और 1989 के बीच अलग-अलग समय पर योजना, विदेश मामलों और विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विभागों का आयोजन किया।
1992 में, पूर्व प्रधान मंत्री वी. पी. सिंह ने उपराष्ट्रपति के कार्यालय के लिए नारायणन का नाम प्रस्तावित किया और 21 अगस्त 1992 को, नारायणन को सर्वसम्मति से भारत के उपराष्ट्रपति के रूप में चुना गया। उन्होंने 1992 से 1 997 तक भारत के नौवें उपराष्ट्रपति के रूप में सेवा की। उपराष्ट्रपति के रूप में कार्यकाल के पूरा होने के बाद, उन्हें भारत के राष्ट्रपति के रूप में चुना गया और 25 जुलाई 1997 को उन्होंने कार्यालय संभाला। वह भारत के उच्चतम कार्यालय में राष्ट्रपति का पद ग्रहण करने वाले पहले  दलित थे। उन्होंने पांच साल तक कार्य किया और 2002 में राष्ट्रपति के पद से सेवानिवृत्त हुए।

निधन

के. आर. नारायणन जी का 9 नवंबर 2005 में निमोनिया और गुर्दे के सुजन होने के कारण 85 वर्ष की आयु में निधन हो गया।

Ramaswamy Venkataraman


रामास्वामी वेंकटरमण
जन्म - 4 दिसम्बर 1910
निधन - 27 जनवरी 2009

प्रारंभिक जीवन

रामास्वामी वेंकटरमण का जन्म तमिल नाडु में तन्जोर जिले के पट्टूकोटाई के समीप राजमदम नामक गाँव में 4 दिसम्बर 1910 को हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मद्रास में हुई और मद्रास के लोयोला कॉलेज से उन्होंने अर्थशाष्त्र विषय में स्नातकोत्तर किया। इसके बाद उन्होंने लॉ कॉलेज मद्रास से क़ानून की डिग्री हासिल की। आरम्भ में उन्होंने मद्रास उच्च न्यायालय में वकालत की और फिर सन 1951 में उच्चतम न्यायालय में अपना नाम दर्ज कराकर कार्य प्रारंभ किया। वकालत के दौरान वे स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़े। उन्होंने भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस द्वारा अंग्रेजी हुकुमत के विरोध में संचालित सबसे बड़े आंदोलनों में एक ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन में भाग
लिया और सन 1942 में जेल गए। इस दौरान भी कानून के प्रति उनकी रूचि बनी रही और जब सन 1946 में सत्ता का हस्तानान्तरण लगभग तय हो चुका था तब उन्हें वकीलों के उस दल में शामिल किया गया जिनको मलय और सिंगापोर जाकर उन भारतीय नागरिकों को अदालत में बचाने का कार्य सौंपा गया था जिनपर  जापान का साथ देने का आरोप लगा था।

राजनीतिक करियर

लॉ और ट्रेड कार्यो ने समाज में वेंकटरमण की पहचान और बढाई। वे उस घटक असेंबली के भी सदस्य थे जिन्होंने भारतीय संविधान की रचना की थी।
1950 में वे मुक्त भारत प्रोविजनल संसद (1950-1952) और पहली संसद (1952-1957) में चुने गये थे। उनके वैधानिक कार्यकाल के समय, वेंकटरमण 1952 के अंतर्राष्ट्रीय मजदूरो की मेटल ट्रेड कमिटी में मजदूरो के दूत बनकर उपस्थित थे। न्यूज़ीलैण्ड में आयोजित कामनवेल्थ पार्लिमेंटरी कांफ्रेंस में वे भारतीय संसद दूतो के सदस्य भी थे। इसके साथ ही 1953 से 1954 के बीच वे कांग्रेस संसद पार्टी के सेक्रेटरी भी थे।
1980 में रामास्वामी वेंकटरमण लोकसभा चुनाव जीतकर संसद में पहुँचे। इन चुनावों से श्रीमती इन्दिरा गांधी की भी सत्ता में वापसी हुई। तब इन्हें केन्द्रीय मंत्रिमंडल में स्थान प्रदान किया गया।
वेंकटरमण 15 जनवरी, 1982 से 2 अगस्त, 1984 तक देश के रक्षा मंत्री रहे। इसके अतिरिक्त इन्हें 16 जनवरी,1980 से 9 अगस्त, 1981 तक उद्योग मंत्रालय का कार्यभार भी सम्भालना पड़ा।
इसी प्रकार 28 जून, 1982 से 2 सितम्बर, 1982 तक इन्होंने गृह मामलों के मंत्रालय का कार्यभार भी वहन किया।
इसके पश्चात् कांग्रेस पार्टी द्वारा श्री रामास्वामी वेंकटरमण को देश का उपराष्ट्रपति नियुक्त करने का निर्णय किया गया। 22 अगस्त, 1984 को इन्होंने उपराष्ट्रपति का पदभार सम्भाल लिया। साथ
ही उपराष्ट्रपति के रूप में राज्यसभा के सभापति भी बने। राज्यसभा के पदेन सभापति के रूप में इनके कार्य की सराहना मात्र कांग्रेस द्वारा ही नहीं बल्कि विपक्ष द्वारा भी की गई।
उपराष्ट्रपति बनने के लगभग 25 माह बाद कांग्रेस को देश का राष्ट्रपति निर्वाचित करना था। ज्ञानी जैल सिंह का कार्यकाल समाप्त होने वाला था। इसी के तहत 15 जुलाई, 1987 को वह भारतीय
गणराज्य के आठवें निर्वाचित राष्ट्रपति घोषित किये गए। 24 जुलाई, 1987 को इन्होंने उपराष्ट्रपति से त्यागपत्र दे दिया। 25 जुलाई, 1987 को संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश आर.एस. पाठक ने इन्हें राष्ट्रपति के पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई।

सम्मान और पुरस्कार

आर. वेंकटरमण को कई पुरस्कार और सम्मान से नवाजा गया। मद्रास, बर्दवान और नागार्जुन विश्वविद्यालयों ने उन्हें ‘डॉक्टरेट ऑफ़ लॉ’ (आनरेरी) से सम्मानित किया। मद्रास मेडिकल
कॉलेज ने उन्हें ‘आनरेरी फेल्लो’ और रूरकी विश्वविद्यालय ने उन्हें ‘डॉक्टर ऑफ़ सोशल साइंसेज’ से सम्मानित किया। भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लेने के लिए उन्हें ‘ताम्र पत्र’
प्रदान किया गया और के. कामराज के समाजवादी देशों के दौरे पर उनके यात्रा वृत्तांत के लिए उन्हें सोवियत लैंड प्राइज से सम्मानित किया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ प्रशासनिक न्यायाधिकरण में
उनकी सेवाओं के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव ने उन्हें स्मृति-चिन्ह से सम्मानित किया। कांचीपुरम के शंकराचार्य ने उन्हें ‘सत सेवा रत्न’ से सम्मानित किया।

निधन

12 जनवरी 2009 को उन्हें सेना के नई दिल्ली स्थित अस्पताल में भर्ती कराया गया। उनकी हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती गयी और अंततः 27 जनवरी 2009 को उन्होंने ये संसार त्याग दिया।

Zail Singh


ज्ञानी ज़ैल सिंह
जन्म - 5 मई, 1916
मृत्यु - 29 नवम्बर 1994

जन्म

ज्ञानी ज़ैल सिंह का जन्म पंजाब में फरीदकोट ज़िले के संधवा नामक गांव में 5 मई, 1916 ई. को हुआ। ज्ञानी ज़ैल सिंह का बचपन का नाम जरनैल सिंह था। पिता खेती करते थे। वह एक किसान के बेटे थे, जिसने हल चलाया, फसल काटी, पशु चराए और खेती के विभिन्न काम करते थे, एक दिन भारत का राष्ट्रपति बन गये। यह बहुत ही असाधारण बात है और इसे सिद्ध कर दिखाया और ज्ञानी ज़ैल सिंह देश के आठवें राष्ट्रपति बन गये।

शिक्षा

ज्ञानी ज़ैल सिंह की स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं हो पाई कि उन्होंने उर्दू सीखने की शुरूआत की, फिर पिता की राय से गुरुमुखी पढ़ने लगे। इसी बीच में वे एक परमहंस साधु के संपर्क में आए। अढाई वर्ष तक उससे बहुत कुछ सीखने-पढ़ने को मिला। फिर गाना-बजाना सीखने की धुन सवार हुई तो एक हारमोनियम बजाने वाले के कपड़े धोकर, उसका खाना बनाकर हारमोनियम बजाना सीखने लगे। पिता ने राय दी कि तुम्हें गाना आता है तो कीर्तन करो, गुरुवाणी का पाठ करो। इस पर जरनैल सिंह ने ‘ग्रंथी’ बनने का निश्चय किया और स्कूली शिक्षा छूटी रह गई। वे गुरुग्रंथ साहब के ‘व्यावसायिक वाचक’ बन गए। इसी से ‘ज्ञानी’ की उपाधि मिली। अंग्रेजों द्वारा कृपाण पर रोक लगाने के विरोध में ज़ैल सिंह को भी जेल जाना पड़ा था। वहां उन्होंने अपना नाम जैल सिंह लिखवा दिया। छूटने पर यही जैल सिंह नाम प्रसिद्ध हो गया।

भारत के राष्ट्रपति

1 9 82 में उन्हें सर्वसम्मति से राष्ट्रपति के रूप में सेवा के लिए नामित किया गया था। बहरहाल, मीडिया में कुछ लोगों का मानना ​​था कि राष्ट्रपति को एक प्रतिष्ठित व्यक्ति की बजाय इंदिरा वफादार होने के लिए चुना गया था। सिंह ने अपने चुनाव के बाद कहा था कि अगर मेरे नेता ने कहा था कि मुझे एक झाड़ू चाहिए और एक सफाई कर्मचारी बनना चाहिए, तो मैंने ऐसा किया होता। उन्होंने मुझे राष्ट्रपति बनने के लिए चुना। " उन्होंने 25 जुलाई, 1 9 82 को कार्यालय की शपथ ली। वह पद के लिए सबसे पहले सिख थे।
उन्होंने गांधी के पास सेवा की, और प्रोटोकॉल ने तय किया कि उन्हें हर हफ्ते राज्य के मामलों पर ब्योरा देना चाहिए। 31 मई 1 9 84 को ऑपरेशन ब्लू स्टार के पहले दिन, उन्होंने एक घंटे से
भी ज्यादा समय तक गांधी से मुलाकात की, लेकिन उसने अपनी योजना के बारे में एक शब्द भी साझा करने से चूक लिया ऑपरेशन के बाद उन्हें सिखों ने अपने पद से इस्तीफा देने पर दबाव डाला था। उन्होंने इस्तीफे के बारे में फैसला किया कि योगी भजन की सलाह पर स्थिति बढ़ेगी। बाद में उन्हें अकाल तख्त से पहले माफी माँगने और हरिमंदिर साहिब के अपहृत होने और निर्दोष सिखों की हत्या के बारे में उनकी निष्क्रियता की व्याख्या करने के लिए कहा गया। उसी वर्ष इंदिरा गांधी की हत्या 31 अक्टूबर को हुई, और उन्होंने अपने बड़े बेटे राजीव गांधी को प्रधान मंत्री के रूप में नियुक्त किया।

मृत्यु

29 नवम्बर 1994 को रोपर जिले के कितारपुर के पास से यात्रा करते समय एक ट्रक गलत साइड से आ रहा था और कार में यात्रा कर रहे जैल की कार ट्रक से टकरा गयी और उनका एक्सीडेंट हो गया, इस हादसे के बाद जैल बहुत सी बीमारियों से जूझ रहे थे और उन्हें बहुत चोट भी लगी थी। 25 दिसम्बर को 1994 में चंडीगढ़ में उपचार के दौरान की उनकी मृत्यु हो गयी थी। उनकी मृत्यु के बाद भारत सरकार ने सात दिन का राष्ट्रिय शोक भी घोषित किया था। दिल्ली के राज घाट मेमोरियल में उनका अंतिम संस्कार किया गया था। उनकी याद में भारतीय पोस्ट विभाग ने 1995 में सिंह की पहली मृत्यु एनिवर्सरी पर एक पोस्टेज स्टैम्प भी जारी किया था।


Neelam Sanjiva Reddy


नीलम संजीव रेड्डी
जन्म - 19 मई 1913, इल्लुर, अनंतपुर ज़िला, आंध्र प्रदेश
निधन - 1 जून 1996, बैंगलोर, कर्नाटक

नीलम संजीव रेड्डी का जन्म 19 मई, 1913 को इल्लुर ग्राम, अनंतपुर ज़िले में हुआ था जो आंध्र प्रदेश में है। आंध्र प्रदेश के कृषक परिवार में जन्मे नीलम संजीव रेड्डी की छवि कवि, अनुभवी राजनेता एवं कुशल प्रशासक के रूप में थी। इनका परिवार संभ्रांत तथा भगवान शिव का परम भक्त था। इनके पिता का नाम नीलम चिनप्पा रेड्डी था जो कांग्रेस पार्टी के काफ़ी पुराने कार्यकर्ता और प्रसिद्ध नेता टी. प्रकाशम के साथी थे।

शिक्षा

नीलम संजीव रेड्डी की प्राथमिक शिक्षा 'थियोसोफिकल हाई स्कूल' अड़यार, मद्रास में सम्पन्न हुई। आगे की शिक्षा आर्ट्स कॉलेज, अनंतपुर में प्राप्त की। महात्मा गांधी के आह्वान पर जब लाखों युवा पढ़ाई और नौकरी का त्याग कर स्वाधीनता संग्राम में जुड़ रहे थे, तभी नीलम संजीव रेड्डी मात्र 18 वर्ष की उम्र में ही इस आंदोलन में कूद पड़े थे। इन्होंने भी पढ़ाई छोड़ दी थी। संजीव रेड्डी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी भाग लिया था। यह उस समय आकर्षण का केन्द्र बने, जब उन्होंने विद्यार्थी जीवन में सत्याग्रह किया था। वह युवा कांग्रेस के सदस्य थे। उन्होंने कई राष्ट्रवादी कार्यक्रमों में हिस्सेदारी भी की थी। इस दौरान इन्हें कई बार जेल की सज़ा भी काटनी पड़ी।

राजनीतिक करियर

1946 में उनकी नियुक्ती मद्रास वैधानिक असेंबली में कांग्रेस प्रतिनिधि के रूप में की गयी, इसके बाद रेड्डी कांग्रेस वैधानिक पार्टी के सेक्रेटरी भी बने। इसके साथ-साथ वे मद्रास से भारतीय संवैधानिक असेंबली के सदस्य भी थे। अप्रैल 1949 से अप्रैल 1951 तक वे मद्रास राज्य से निषेध, आवास और वन मिनिस्टर भी थे। 1951 के चुनाव में कम्युनिस्ट लीडर तरिमेला नागी रेड्डी के खिलाफ मद्रास वैधानिक असेंबली के लिए हुए चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।

भारत के राष्ट्रपति

21 जुलाई 1977 को नीलम संजीव रेड्डी की नियुक्ती राष्ट्रपति के पद पर की गयी और 25 जुलाई 1977 को वे भारत के छठे राष्ट्रपति बने। रेड्डी ने तीन सरकारों के साथ काम किया था, प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, चरण सिंह और इंदिरा गांधी। भारत की आज़ादी की 20 वी एनिवर्सरी पर रेड्डी ने घोषणा की थी वे राष्ट्रपति भवन को छोड़कर एक छोटे आवास में रहने के लिए जा रहे है और उन्होंने उन्हें मिलने वाले पैसो में 70% की कटौती देश के विकास के लिए भी की थी।

मृत्यु

भारतीय राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल पूरा होने पर, रेड्डी अपने गांव इलुरु से वापस लौट गये। कृषि के साथ अपना जीवन जारी रखा। 1 जून 1996 को बंगलुरु में 83 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

Basappa Danappa Jatti


बासप्पा दानप्पा जत्ती
जन्म - 10 सितम्बर 1912
मृत्यु - 7 जून 2002

जन्म

बासप्पा दानप्पा जत्ती का जन्म 10 सितम्बर 1912 को बीजापुर ज़िले के सवालगी ग्राम में हुआ था। बीजापुर ज़िला, कर्नाटक का विभाजित भाग भी बना। जब इनका जन्म हुआ, तो गाँव में मूलभूत सुविधाओं का सर्वथा अभाव था। इनका ग्राम मुंबई प्रेसिडेंसी की सीमा के निकट था। इस कारण वहाँ की भाषा मराठी थी, कन्नड़ भाषा नहीं। श्री बासप्पा के दादाजी ने सवालगी ग्राम में एक छोटा घर तथा ज़मीन का एक टुकड़ा ख़रीद लिया था। लेकिन आर्थिक परेशानी के कारण घर और ज़मीन को गिरवी रखना पड़ा ताकि परिवार का जीवन निर्वाह किया जा सके।

विद्यार्थी जीवन

उस समय सवालगी ग्राम में दो स्कूल थे, जो प्राथमिक स्तर के थे। एक, लड़कों का स्कूल और दूसरा, लड़कियों का स्कूल। बासप्पा बचपन में काफ़ी शरारती थे। वह शरारत करने का मौक़ा तलाश करते थे। बासप्पा अपनी बड़ी बहन के बालिका स्कूल में पढ़ने जाते और वह इनकी सुरक्षा करती थीं। दूसरी कक्षा के बाद इन्हें लड़कों के स्कूल में दाखिला प्राप्त हो गया। चौथी कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इन्हें ए. वी. स्कूल में भर्ती कराया गया, जो उसी वर्ष खुला था। यह स्कूल काफ़ी अच्छा था। ए. वी. स्कूल की पढ़ाई समाप्त करने के बाद बासप्पा सिद्धेश्वर हाई स्कूल बीजापुर गए ताकि मैट्रिक स्तर की परीक्षा दे सकें। 1929 में उन्होंने मैट्रिक परीक्षा पास कर ली। तब यह स्कूल के छात्रावास में ही रहा करते थे। वह खेलकूद में भी रुचि रखते थे। इन्हें फुटबॉल एवं तैराकी के अलावा कुछ भारतीय परम्परागत खेलों में भी रुचि थी। खो-खो, मलखम्भ, कुश्ती, सिंगल, बार एवं डबल बार पर कसरत करने का भी इन्हें शौक़ थ। उन्होंने लगातार दो वर्ष तक लाइट वेट वाली कुश्ती चैम्पियनशिप भी जीती थी।

राजनीतिक जीवन

1952 के भारत छोड़ो आन्दोलन में बासप्पा ने प्रजा परिषद पार्टी की ओर से प्रतिनिधित्व किया। जमाखंडी की प्रजा परिषद पार्टी में इन्हें सेक्रेटरी का पद प्रदान किया गया। इन दिनों बासप्पा को यह पसंद नहीं था कि इन्हें काँग्रेसी कहकर सम्बोधित किया जाए। 18 अप्रॅल 1945 को वह जमाखंडी स्टेट के मंत्रिमंडल में शामिल हो गए। 25 अगस्त 1947 को यह प्रजा परिषद पार्टी की ओर से जमाखंडी स्टेट के मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए। लेकिन जब राज्यों के पुनर्गठन का समय आया तो जमाखंडी स्टेट स्वतंत्र भारत का एक अभिन्न हिस्सा बन गया। 1952 में भारतीय गणराज्य का प्रथम आम चुनाव हुआ। इसमें बासप्पा ने काँग्रेस के टिकट पर जमाखंडी सीट से विधायक का चुनाव लड़ा और शानदा अंतर के साथ जीत अर्जित की। मुंबई राज्य में पहली जन चयनित लोकप्रिय सरकार बनी और मोरारजी देसाई प्रथम मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए। बासप्पा को उपमंत्री का दर्जा प्राप्त हुआ। यह शांतिलाल शाह के साथ कार्य करने लगे, जिनके पास स्वास्थ्य और श्रम के महकमे थे। शांतिलाल शाह ने बासप्पा जत्ती को कार्य हेतु पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की। इन्हें लगता था कि यह स्वयं कैबिनेट मिनिस्टर हैं। 1 नवम्बर 1956 को मुंबई प्रोविंस में जो हिस्सा कन्नड़ भाषी प्रदेश था, उसे अलग करके मैसूर में मिला दिया गया। इस प्रकार बासप्पा जमाखंडी की जिस सीट से विधायक निर्वाचित हुए थे, वह सीट मैसूर विधानसभा के अंतर्गत आ गई। 10 मई 1957 को इन्हें मैसूर राज्य की भूमि सुधार समिति का चेयरमैन बना दिया गया। उन्होंने यहाँ अवैतनिक रूप से पूर्ण निष्ठा के साथ कार्य किया। 27 अगस्त 1974 को बासप्पा उपराष्ट्रपति पद का चुनाव काफ़ी अंतर के साथ जीत गए। इन्हें 78.7 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। इनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी श्री एन. ई. होरो को शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा, जो विपक्ष की कई पार्टियों के संयुक्त उम्मीदवार थे। 31 अगस्त 1974 को इन्हें राष्ट्रपति फ़खरुद्दीन अली अहमद ने उपराष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण कराई,11 फ़रवरी 1977 को फ़ख़रुद्दीन अली अहमद की मृत्यु राष्ट्रपति पद पर रहते हुए हो गई। एक ओर जहाँ दिवंगत राष्ट्रपति के अंतिम संस्कार की रूपरेखा तैयार की जा रही थी, वहीं दूसरी ओर संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार उपराष्ट्रपति बी.डी जत्ती को कार्यवाहक राष्ट्रपति बनाए जाने की औपचारिकताएँ भी पूर्ण की जा रही थीं। पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय फ़ख़रुद्दीन अली अहमद की मृत्यु के दो घंटे बाद बी. डी. जत्ती को प्रातः 10.35 बजे कार्यवाहक राष्ट्रपति की शपथ ग्रहण कराई गई। सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख न्यायाधीश एम.एच. बेग ने बासप्पा दानप्पा जत्ती को कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में राष्ट्रपति भवन के अशोक हॉल में साधारण समारोह के दौरान शपथ ग्रहण कराई। बासप्पा ने यह पदभार 24 जुलाई 1977 तक संभाला। इस दौरान इन्होंने छठवीं लोकसभा के नए सत्र का शुभारंभ होने पर सदन को सम्बोधित भी किया। इसके बाद नीलम संजीव रेड्डी देश के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए।

मृत्यु

7 जून 2002 को बी.डी जत्ती का निधन हो गया। जीवन के अंतिम समय में वे बंगलौर में थे। इस प्रकार एक परम्परावादी युग का अंत हो गया, जिससे गाँधी दर्शन भी समाहित था। उन्हें गांधीवादी विचारों के लिए आज भी याद किया जाता है। भले ही वे देश के निर्वाचित राष्ट्रपति नहीं रहे हो लेकिन कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में अपने छोटे से कार्यकाल में उन्होंने संवैधानिक जिम्मेदारी को बखूबी निभाया।

Fakhruddin Ali Ahmed


फखरुद्दीन अली अहमद
जन्म - 13 मई, 1905, दिल्ली
मृत्यु - 11 फरवरी, 1977, दिल्ली

फखरुद्दीन अली अहमद का जन्म 13 मई 1905 को भारत में नयी दिल्ली के हौज़ क़ाज़ी भाग में हुआ था। उनके पिता ज़ल्नुर अली अहमद, पहले आसामी इंसान थे जिनके पास एम.डी.(डॉक्टर ऑफ़ मेडिसिन) की उपाधि थी और साथ ही उत्तर-पूर्व भारत से भी वे यह डिग्री हासिल करने वाले पहले भारतीय थे।
उनकी माँ लोहरू के नवाब की बेटी थी। अहमद के दादा खालिलुद्दीन अली अहमद आसाम के गोलाघाट में कचारिघाट के पास रहते थे और स्थानिक लोग एक आसामी मुस्लिम परिवार के रूप में उनका सम्मान करते थे।
उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले की सरकारी हाई स्कूल से अहमद ने प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की थी और दिल्ली सरकार की हाई स्कूल से उन्होंने मेट्रिक की परीक्षा पास की थी। इसके बाद पढाई करने के लिए वे सेंट स्टेफेन कॉलेज, दिल्ली और सेंट कैथरीन कॉलेज, कैम्ब्रिज में दाखिल हुए। इसके बाद 1928 में वे लाहौर हाई कोर्ट में लॉ का प्रशिक्षण ले रहे थे।

राजनैतिक सफर

फखरुद्दीन अली अहमद भारत के एक ऐसे सफल राजनेता थे जिन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की स्थाई छाप भारतीय जनता के ऊपर छोड़ा, जो आजतक भरतीय जनता के लिए प्रेरणा का श्रोत बना हुआ है। इन्हें असम और भारत के महान सपूत के रूप में भी याद किया जाता है। अपने विचारों के माध्यम से इन्होने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपना अमूल्य योगदान दिया था। इसके अलावा भारत के राष्ट्रपति के रूप में इन्होंने नि:स्वार्थ सेवा और नैतिक मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए राष्ट्र के निर्माण में अपना अमूल्य योगदान दिया। महात्मा गांधी और पं. जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में इन्होंने एक लोकप्रिय नेता के रूप में देश का नेतृत्व भी किया। इंग्लैंड प्रवास के दौरान फखरुद्दीन अली अहमद की मुलाकात वर्ष 1925 में पं. जवाहर लाल नेहरू से हुई. नेहरू जी के प्रगतिशील विचारों से वे बेहद प्रभवित हुए और उन्हें अपना गुरु तथा मित्र मानने लगे एवं वर्ष 1930 से उनके साथ कार्य करने लगे। नेहरू जी के अनुरोध पर फखरुद्दीन अली अहमद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए और सक्रिय रूप से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। जबकि उनके सह-धर्मिओं ने उनको मुस्लिम लीग में शामिल होने के लिए राजी किया गया था. उन्होंने देश की आजादी के लिए वर्ष 1940 में सत्याग्रह आन्दोलन में सक्रीय रूप से भाग लिया, जिसके कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और जेल जाना पड़ा। इसके अलावा उन्हें वर्ष 1942 में 9 अगस्त को ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समर्थन में भाग लेने के आरोप में पुनः गिरफ्तार कर लिया गया, जब वे अखिल भारतीय कांग्रेस समिति (एआईसीसी) की ऐतिहासिक मुंबई बैठक से वापस लौट रहे थे। इस प्रकार अप्रैल 1945 तक यानि लगभग साढ़े तीन वर्षों तक देश की सुरक्षा को उनसे खतरा बताकर उन्हें एक कैदी के रूप में जेल में रखा गया था। उन्होंने कांग्रेस पार्टी में कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया. वे वर्ष 1935 में असम विधानसभा के लिए निर्वाचित किया गये थे। बाद में वे वर्ष 1936 में असम प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदस्य बने। इसके बाद वे सितम्बर 1938 में असम प्रदेश में वित्त, राजस्व और श्रम मंत्री बने। उन्होंने अपने मंत्रीत्व काल के दौरान अपनी कुशल प्रशासनिक क्षमताओं का श्रेष्ठ सबूत पेश किया। उन्होंने मंत्री रहते हुए ‘असम कृषि आयकर विधेयक’ लागू किया, यह भारत में पहली ऐसी घटना थी जब चाय बागानों की भूमि पर टैक्स  लगाया गया। उनकी श्रमिक-समर्थक नीति की वजह से अंग्रेजों के स्वामित्व वाली ‘असम आयल कंपनी लिमिटेड’ के कर्मचारी हड़ताल पर चले गए। परिणाम स्वरुप अली अहमद को कड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। इन घटनाओं से उनकी कुशल प्रशासनिक क्षमता भी देखने को मिली।

राष्ट्रपति के रूप में उनका कार्यकाल

वर्ष 1969 में कांग्रेस के विभाजन के समय फखरुद्दीन अली अहमद ने इंदिरा गांधी का साथ चुना क्योंकि उनका नेहरू और उनके परिवार के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था। इसके बाद उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के सहयोग से 29 अगस्त, 1974 को भारत का 5वां राष्ट्रपति चुना गया. डॉ. जाकिर हुसैन के बाद राष्ट्रपति बनने वाले वे दूसरे मुस्लिम थे। वर्ष 1975 में आपातकाल लगने के बाद फखरुद्दीन अली अहमद विपक्ष के निशाने पर थे क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर आपातकाल से सम्बब्धित दस्तावेज पर हस्ताक्षर किया था।

सम्मान

उन्हें 1 9 75 में कोसोवो में यूनिवर्सिटी ऑफ प्रिस्टिना द्वारा मानद डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया, जब उन्होंने यूगोस्लाविया की यात्रा की। वह असम फुटबॉल संघ और असम क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष चुने गए थे; वह असम स्पोर्ट्स काउंसिल के उपराष्ट्रपति भी थे। अप्रैल 1 9 67 में, उन्हें अखिल भारतीय क्रिकेट संघ के अध्यक्ष चुना गया। वह 1 9 61 से दिल्ली गोल्फ क्लब और दिल्ली जिमखाना क्लब के सदस्य थे। 1942 में उन्हें भारत छोड़ो आंदोलन में गिरफ्तार किया गया और 31/2 साल की कारावास की सजा सुनाई गई। वह 1936 में असम प्रदेश कांग्रेस समिति के सदस्य और 1947 से 1974 के एआईसीसी के सदस्य थे, और 1938
में गोपीनाथ बोर्डोली मंत्रालय में वित्त, राजस्व और श्रम मंत्री बने और वह औद्योगिक कानून स्थापित करने वाले पहले राष्ट्रपति हैं। उनके सम्मान में बारपेटा असम में एक मेडिकल कॉलेज फखरुद्दीन अली अहमद मेडिकल कॉलेज का नाम रखा गया है।

निधन

11 फरवरी, 1977 में हृदयगति रुक जाने से अहमद का कार्यालय में निधन हो गया।

Mohammad Hidayatullah


मोहम्मद हिदायतुल्लाह
जन्म - 17 दिसंबर, 1905
मृत्यु - 18 सितंबर, 1992

प्रारंभिक जीवन

17 दिसंबर, 1905 को जन्में भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति मोहम्मद हिदायतुल्लाह का जन्म ब्रिटिश आधीन लखनऊ के प्रसिद्ध खान बहादुर हाफिज मोहम्मद विलायतुल्लाह के परिवार में हुआ था | इनके पिता उर्दू भाषा के एक प्रख्यात कवि थे | इनके दादा श्री मुंशी कुदरतुल्लाह बनारस में वकील थे जबकि इनके पिता ख़ान बहादुर हाफ़िज विलायतुल्लाह आई.एस.ओ. मजिस्ट्रेट मुख्यालय में तैनात थे | इनके पिता काफ़ी प्रतिभाशाली थे और प्रत्येक शैक्षिक इम्तहान में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते थे | इनके पिता हाफ़िज विलायतुल्लाह 1928 में भाण्डरा से डिप्टी कमिश्नर एवं डिस्ट्रिक्ट के पद से सेवानिवृत्त हुए थे | मुहम्मद हिदायतुल्लाह के दो भाई और एक बहन थी | उनमें सबसे छोटे यही थे | मुहम्मद हिदायतुल्लाह की माता का नाम मुहम्मदी बेगम था जिनका ताल्लुक मध्य प्रदेश के एक धार्मिक परिवार से था, जो हंदिया में निवास करता था | मुहम्मद हिदायतुल्लाह की माता का निधन 31 जुलाई, 1937 को हुआ था | उन्होंने 1922 में रायपुर के गवर्नमेंट हाई स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद नागपुर के मोरिस कॉलेज में दाखिला लिया जहां 1926 में उन्हें फिलिप छात्रवृत्ति के लिए नामित किया गया | वर्ष 1927 में कानून की पढ़ाई संपन्न करने के लिए हिदायतुल्लाह कैंम्ब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कॉलेज गए | अपने उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए उन्हें गोल्ड मेडल से सम्मानित किया गया |

लॉयर के रूप में करियर

ग्रेजुएशन के बाद, हिदायतुल्लाह भारत वापिस आए और उन्होंने खुद को 19 जुलाई 1930 को नागपुर के बरार और मध्य भारत के हाई कोर्ट में अधिवक्ता के रूप में दाखिल करवाया| इसके बाद नागपुर यूनिवर्सिटी में उन्होंने लॉ भी पढाया और इंग्लिश साहित्य का ज्ञान भी उन्हें था | 12 दिसम्बर 1942 को नागपुर के हाई कोर्ट में उनकी नियुक्ती सरकारी वकील के रूप में की गयी थी | 2 अगस्त 1943 को वे वर्तमान मध्यप्रदेश के अधिवक्ता बने और फिर कुछ समय बाद 1946 में उनकी नियुक्ती हाई कोर्ट के अतिरिक्त जज के रूप में की गयी थी | उस समय मध्य प्रदेश के सबसे युवा अधिवक्ता के रूप में वे प्रसिद्ध थे |

न्यायिक करियर

24 जून 1946 को हिदायतुल्लाह की नियुक्ती मध्यप्रदेश के हाई कोर्ट के अतिरिक्त जज के रूप में की गयिओ थी और 13 सितम्बर 1946 को उनकी नियुक्ती फिर हाई कोर्ट के परमानेंट जज के रूप में की गयी थी | 3 दिसम्बर 1954 को नागपुर में चीफ जस्टिस के रूप में उनकी नियुक्ती की गयी थी और उस समय वे मध्य भारत के सबसे युवा अधिवक्ता थे | 1 दिसम्बर 1958 को उन्हें ऊँचा पद देते हुए उन्हें भारत के सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस बनाया गया | उस समय में वे भारत में सुप्रीम कोर्ट के सबसे युवा चीफ जस्टिस थे | तक़रीबन 10 साल तक जज के पद पर रहते हुए सेवा करने के बाद 28 फरवरी 1968 को उनकी नियुक्ती फिर चीफ जस्टिस के रूप में की गयी थी और तब वे भारत के पहले मुस्लिम चीफ जस्टिस बने थे | 16 दिसम्बर 1970 को वे अपने पद से सेवानिर्वृत्त हुए थे |

भारत के राष्ट्रपति

जब वे भारत के चीफ जस्टिस के पद पर कार्यरत थे तभी 3 मई 1969 को भारत के राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन की अचानक मृत्यु हो गयी थी | इसके बाद भारत के उपराष्ट्रपति  वी. वी. गिरी एक्टिंग प्रेसिडेंट बने | लेकिन फिर बाद में वी. वी. गिरी ने दोनों पद, एक्टिंग प्रेसिडेंट और एक्टिंग वाईस-प्रेसिडेंट से इस्तीफा दे दिया और वे 1969 के प्रांतीय चुनाव के उम्मेदवार बने | जस्टिस  एम. हिदायतुल्लाह इसके बाद 20 जुलाई से 24 अगस्त तक भारत के राष्ट्रपति के पद पर कार्यरत थे और उपराष्ट्रपति के आभाव में CJI उनकी भूमिका निभा रही थी | राष्ट्रपति के पद पर रहते हुए यूनाइटेड स्टेट में मी. रिचर्ड निक्सन के साथ उनकी मुलाकात भारत में एक इतिहासिक मुलाकात के रूप में याद की जाती है | उनके सेवानिर्वृत्त होने के बाद, जस्टिस हिदायतुल्लाह की नियुक्ती भारत के उपराष्ट्रपति के पद पर की गयी थी |

पुरूस्कार

ऑफिसर ऑफ़ दी आर्डर ऑफ़ ब्रिटिश एम्पायर , 1946 में किंग के बर्थडे पर दिया गया सम्मान
वॉर सर्विस बैज (बिल्ला), 1948
आर्डर ऑफ़ दी युगोस्लाव फ्लैग विथ सश, 1970
फिल्कांसा का बड़ा मैडल और फलक, 1970
मार्क ट्वेन का शूरवीर, 1971
अलाहाबाद यूनिवर्सिटी अलुमिनी एसोसिएशन द्वारा 42 सदस्यों की ‘प्राउड पास्ट अलुमिनी’ की सूचि में उन्हें शामिल किया गया।
1968 में लिंकन इन के बेंचर का सम्मान
प्रेसिडेंट ऑफ़ ऑनर, इन् ऑफ़ कोर्ट सोसाइटी, भारत
मनिला शहर के मुख्य और प्रतिष्ठित व्यक्ति, 1971
शिरोमणि अवार्ड, 1986
आर्किटेक्ट ऑफ़ इंडिया अवार्ड, 1987
बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी का दशरथमल सिंघवी मेमोरियल अवार्ड
1970 और 1987 के बीच, 12 भारतीय यूनिवर्सिटी और फिलीपींस यूनिवर्सिटी ने उन्हें वकिली और साहित्य में डॉक्टरेट की डिग्री प्रदान की थी।

किताबे

एशिया पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित – भारतीय लोकतंत्र और न्यायिक प्रणाली, 1966
दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका केस, 1967 में एशिया पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित (1966)
संविधानिक और संसदीय अभ्यास के लिए नेशनल पब्लिशिंग हाउस (1970) द्वारा न्यायिक विधि किताब का प्रकाशन।
जज का विविध संग्रह, एन.एम. त्रिपाठी (1972)
एक जज का विविध संग्रह (दूसरा संस्करण), एन.एम. त्रिपाठी (1972)
यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका और भारत: ऑल इंडिया रिपोर्टर (1977)
भारतीय संविधान का पाँचवी और छठी अनुसूची, अशोक पब्लिशिंग हाउस
माय ओन बोसवेल (जीवनी), अर्नाल्ड-हेंएमन्न (1980)
एडिटर, मुल्ला मोहम्मेदन लॉ
कमर्शियल लॉ पर जस्टिस हिदायतुल्लाह: दीप & दीप (1982)
भारत के संविधानिक अधिकार: बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया ट्रस्ट (1984)
संपत्ति का अधिकार और भारतीय संविधान: कलकत्ता यूनिवर्सिटी (1984)

मृत्यू

18 सितंबर 1992 को मोहम्मद हिदायतुल्लाह का निधन हो गया। उन्हें एक प्रख्यात विधिवेत्ता, विद्वान, शिक्षाविद्, लेखक और भाषाविद् के रूप में माना जाता है। अपने समय में वह भारत के उच्चतम न्यायालय के सबसे कम उम्र के न्यायाधीश थे। वह भारत के पहले मुस्लिम मुख्य न्यायाधीश भी थे। जस्टिस हिदायतुल्लाह एकमात्र व्यक्ति हैं जिन्होंने भारत के राष्ट्रपति, भारत के उपराष्ट्रपति और भारत के मुख्य न्यायाधीश सभी तीन शीर्ष पदों को धारण किया।

Shri Varahagiri Venkata Giri


जन्म - 10 अगस्त 1894, बहरामपुर,
मृत्यु - 23 जून 1980, मद्रास, तमिल नाडु

प्रारंभिक जीवन

वराह गिरि वेंकट गिरि (वी.वी.गिरि) का जन्म 10 अगस्त, 1894 को ओडिशा के बेहरामपुर में एक तेलुगू भाषी ब्राह्मण परिवार में हुआ था | उनके पिता वराह गिरि वेंकट जोगैया पांटुलु एक
प्रतिष्ठित और समृद्ध वकील थे | उन्होंने अपनी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा गृहनगर में पूरी की | अपनी कानून की शिक्षा के लिए उन्होंने वर्ष 1913 में डबलिन यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया |
उसी वर्ष उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई, वी.वी. गिरि उनके विचारों से काफी प्रभावित हुए और उन्हें यह एहसास हुआ कि कानून की शिक्षा से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है देश की आजादी
की लड़ाई | वर्ष 1916 में उन्होंने आयरलैंड के ‘सिन्न फ़ाईन आंदोलन’ में सक्रीय रूप से भाग लिया | परिणामतः वे अपनी कानून की शिक्षा पूरी करने में असमर्थ हो गए और उन्हें कॉलेज से
निष्काषित कर दिया गया | यह आयरलैंड की आजादी और श्रमिकों का आंदोलन था, जिसके पीछे वहां के कुछ क्रांतिकारी विचारधारा वाले लोगों जैसे- डी. वालेरा, कोलिन्स, पेअरी, डेसमंड
फिजराल्ड़, मेकनेल और कोनोली का हाथ था | उन्होंने व्यक्तिगत रूप से उनसे मुलाकात की | इस आन्दोलन से प्रभावित होकर वे ऐसे आंदोलनों की आवश्यकता भारत में भी महसूस करने
लगे | इसके बाद वी.वी. गिरि भारत लौट आए और सक्रिय रूप से श्रमिक आंदोलनों में भाग लेना शुरू किए, बाद में वे श्रमिक संगठन के महासचिव नियुक्त किये गए | उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलनों
में भी सक्रीय रूप से भाग लिया |

भारत के राष्ट्रपति

24 अगस्त 1969 को गिरी भारत के राष्ट्रपति बने और 24 अगस्त 1974 को फखरुद्दीन अली अहमद के राष्ट्रपति बने रहने तक वे भारत के राष्ट्रपति के पद पर कार्यरत थे। चुनाव में गिरी की नियुक्ती राष्ट्रपति के पद पर की गयी थी लेकिन वे केवल एक्टिंग प्रेसिडेंट का ही काम कर रहे थे और वे एकमात्र ऐसे राष्ट्रपति थे जिनकी नियुक्ती एक स्वतंत्र उम्मेदवार के रूप में की गयी थी। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने उस समय में भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निर्णयों को भी सुना था। राष्ट्रपति के पद पर रहते हुए उन्होंने 22 देशो के 14 राज्यों का भ्रमण किया। जिनमे दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया, यूरोप और अफ्रीका भी शामिल है। गिरी को भारत के उन राष्ट्रपतियों में गिना जाता है जिन्होंने अपने अधिकारों को प्रधानमंत्री के अधीन कर दिया था और वे स्वयं को “प्रधानमंत्री का राष्ट्रपति” कहते थे। वे एक सम्माननीय और रबर स्टेम्प प्रेसिडेंट कहलाते थे। 1974 में जब गिरी का कार्यकाल समाप्त हुआ तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनकी पुनर्नियुक्ति करने की बजाए फखरुद्दीन अली अहमद को 1974 में राष्ट्रपति पद के लिए चुना।

भारत रत्न

गिरी को भारत के सर्वोच्च अवार्ड भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। 1975 में सामाजिक मुद्दों पर उनके सहयोगो के लिए उन्हें भारत रत्न अवार्ड से सम्मानित किया गया था। राष्ट्रपति रहते हुए गिरी ने स्वः प्रेरणा से 1972 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भारत रत्ना देने की इच्छा जताई थी। लेकिन फिर 1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की प्रेरणा पर ही उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। भारत के पाँच राष्ट्रपतियों को मिलने वाले भारत रत्ना अवार्ड में से गिरी चौथे राष्ट्रपति थे।

मृत्यु

24 जून 1980 को हार्ट अटैक की वजह से गिरी की मृत्यु हुई थी। मृत्यु के अगले दिन पुरे राज्य ने उन्हें अंतिम विदाई दी थी और भारत सरकार ने उनके सम्मान में सुबह का मौन भी घोषित किया था। इसके साथ ही उन्हें सम्मान देते हुए भारत सरकार ने दो दिन की राज्य सभा भी स्थगित कर दी थी।

Dr. Zakir Husain


जन्म - 8 फरवरी, 1897, हैदराबाद, तेलन्गाना
मृत्यु - 3 मई, 1969, दिल्ली

डॉ. जाकिर हुसैन का जन्म तेलन्गाना के हैदराबाद में 8 फरवरी, 1897 में हुआ था | जन्म के बाद उनका परिवार उत्तर प्रदेश के फरुक्खाबाद जिले के कायमगंज में बस गया | यद्यपि उनका जन्म भारत में हुआ था, परन्तु उनके परिवार के पुराने इतिहास को देखा जाय तो ये वर्तमान पश्तून जनजाति वाले पाकिस्तान और अफगानिस्तान के सीमावर्ती इलाकों से सम्बन्ध रखते थे | यह भी कहा जाता है कि उनके पूर्वज 18वीं शताब्दी के दौरान वर्तमान पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आकर बस गए थे | जब वह केवल 10 वर्ष के थे तो उनके पिता चल बसे और 14 वर्ष की उम्र में उनकी माँ का निधन हो गया था | युवा जाकिर ने इटावा में इस्लामिया हाई स्कूल से अपनी प्रारम्भिक स्कूली शिक्षा पूरी की | बाद में उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा के लिए अलीगढ़ में एंग्लो-मुहम्मडन ओरिएंटल कॉलेज (जो आजकल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में जाना जाता है) में दाखिला लिया | शिक्षा के प्रति प्रेम के कारण बाद में जाकिर हुसैन ने जर्मनी आकर शिक्षा पुरी की | वहा से पी.एच.डी. की उपाधि लेकर पुन: जामिया में आ गये और 100 रूपये के मासिक वेतन पर 29 वर्ष की उम्र में कुलपति बन गये | उन्होंने 22 वर्षो तक इस संस्था की सेवा की |देश की स्वतंत्रता के बाद जाकिर हुसैन अलीगढ़ विश्वविद्यालय के उपकुलपति बने | 1952 में राज्य सभा में सदस्य चुने जाने पर उनका सक्रिय राजनीतिक जीवन आरम्भ हुआ |

जब डॉ.जाकिर हुसैन को डॉ.राधाकृष्णन के पश्चात राष्ट्रपति बनाया गया तो उन्होंने कहा था कि “मुझे राष्ट्रपति चुनकर राष्ट्र ने एक अध्यापक का सम्मान किया है | मैंने लगभग 47 वर्ष पूर्व संकल्प लिया था कि मै अपने जीवन के सर्वोत्तम वर्ष राष्ट्रीय शिक्षा में लगाऊंगा | मैंने अपना सार्वजनिक जीवन गांधीजी के चरणों में शुरू किया था | गांधीजी मुझे प्रेरणा देते रहे है और उन्होंने मुझे रास्ता दिखाया है | अब मुझे सेवा करने का एक नया मौका मिला है | मै अपने लोगो को गांधीजी द्वारा दिखाए रास्ते पर ले जाने की भरसक कोशिस करूंगा”

सचमुच यह भारत के लिए सौभाग्य की बात ही है कि उसे राष्ट्रपति के रूप में ऐसे व्यक्ति मिले जिन्होंने इस पद की गरिमा को बढाया , किसी भी प्रकार से उसे कम नही किया | डा.जाकिर हुसैन इस परम्परा की तीसरी कड़ी है | उनका राष्ट्रपति होना इस बात का भी प्रमाण है कि हमारी निति और सामाजिक आस्था सर्वथा धर्म निरपेक्ष रही है | या सही है कि वह मुस्लिम थे परन्तु वह उससे पहले ठेठ भारतीय थे वह ओर किसी की और नही केवल भारत की ओर देखते थे | भारत उनके मन में समाया हुआ था |

भारत के राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने के दो साल के बाद ही 3 मई, 1969 को डॉ. जाकिर हुसैन का  निधन हो गया | वे पहले राष्ट्रपति थे जिनका निधन कार्यकाल के दौरान ही हुआ | उन्हें नई दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया (केन्द्रीय विश्वविद्यालय ) के परिसर में दफनाया गया है |

Dr. Sarvepalli Radhakrishnan


नाम – डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन
जन्म – 5सितम्बर, 1888 को तिरुतानी, मद्रास

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1888 को मद्रास शहर (चेन्नई) से लगभग 50 किलोमीटर दूर तमिलनाडु राज्य के तिरुतनी नामक गाँव में हुआ था | उनका परिवार अत्यंत धार्मिक था | उन्होंने प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा मिशन स्कूल, तिरुपति तथा बेलौर कॉलेज, बेलौर में प्राप्त की | सन 1905 में उन्होंने मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज में प्रवेश लिया यहां से बी.ए. तथा
एम.ए. की उपाधि प्राप्त की | इनको मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में सहायक लेक्चरार के रुप में और मैसूर यूनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के रुप में नौकरी मिली। 30 वर्ष की उम्र में, इन्हें
सर आशुतोष मुखर्जी (कलकत्ता विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर) के द्वारा मानसिक और नैतिक विज्ञान के किंग जार्ज वी चेयर से सम्मानित किया गया |

डॉ. राधकृष्णन आंध्र यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर बने और बाद में तीन वर्ष के लिये पूर्वी धर्म और नीतिशास्त्र में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर भी रहे | ये 1939 से 1948 तक
बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर भी रहे |डॉ. राधाकृष्णन एक अच्छे लेखक भी थे जिन्होंने भारतीय परंपरा, धर्म और दर्शन पर कई लेख और किताबें लिखी है | वो 1952 से 1962
तक भारत के उप राष्ट्रपति थे और 1962 से 1967 तक भारत के राष्ट्रपति रहे तथा सी.राजगोपालचारी और सी.वी.रमन के साथ भारत रत्न से सम्मानित किये गये |वो एक महान शिक्षाविद्और मानवतावादी थे इसी वजह से शिक्षकों के प्रति प्यार और सम्मान प्रदर्शित करने के लिये पूरे देश भर में विद्यार्थियों के द्वारा हर वर्ष शिक्षक दिवस के रुप में उनके जन्म दिवस को मनाया जाता है। डॉ. राधाकृष्णन भाषण कला में इतने निपुण थे कि उन्हें विभिन्न देशों में भारतीय एंव पाश्चात्य दर्शन पर भाषण देने के लिए बुलाया जाता था | उनमें विचारों, कल्पना तथा भाषा द्वारा लोगों को प्रभावित करने की ऐसी अद्भुत शक्ति थी कि उनके भाषणों से लोग मंत्रमुग्ध रह जाते थे | उनके भाषणों की यह विशेषता दर्शन एंव आध्यात्म पर उनकी अच्छी पकड़ के साथ-साथउनकी आध्यात्मिक शक्ति के कारण भी थी | उनके राष्ट्रपतित्व काल के दौरान 1962 ई. में भारत-चीन युद्ध 1965 ई. में भारत-पाक युद्ध लड़ा गया था | इस दौरान उन्होंने अपने ओजस्वी भाषणों से भारतीय सैनिकों के मनोबल को ऊंचा उठाने में अपनी सराहनीय भूमिका अदा की |

डॉ. राधाकृष्णन के कुछ प्रसिद्ध विचार ये हैं, “दर्शनशास्त्र एक रचनात्मक विद्या है | प्रत्येक व्यक्ति ही ईश्वर की प्रतिमा है | अंतरात्मा का ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता है | दर्शन का उद्देश्य जीवन की
व्याख्या करना नहीं, बल्कि जीवन को बदलना है | एक शताब्दी का दर्शन ही दूसरी शताब्दी का सामान्य ज्ञान होता है | दर्शन का अल्पज्ञान मनुष्य को नास्तिकता की ओर झुका देता है, परंतु
दार्शनिकता की गहनता में प्रवेश करने पर, मनुष्य का मन, धर्म की ओर उन्मुख हो जाता है | धर्म और राजनीति का सामंजस्य असंभव है, एक सत्य की खोज करता है, तो दूसरे को सत्य से कुछ लेना-देना नहीं |”

डॉ. राधाकृष्णन की मृत्यु 16 अप्रैल 1975 को हो गई, परंतु अपने जीवनकाल में अपने ज्ञान से जो आलोक उन्होंने फैलाया था, वह आज भी पूरी दुनिया को आलोकित कर रहा है | बड़े-से-बड़े
पद पर रहकर भी वे हमेशा विनम्र बने रहे और राजनीति के दांव-पेंच ने उन्हें कभी भी विचलित नहीं किया | वे उदारता, कर्तव्यपरायणता, सनातन मंगल भावना, ईमानदारी और सहजता इन
सबके साकार प्रतिबिम्ब थे | वे एक महान शिक्षाविद भी थे और शिक्षक होने का उन्हें गर्व था | यही कारण है कि उनके जन्मदिन 5 सितंबर को ‘शिक्षक दिवस’ के रुप में मनाया जाता है | ‘गीता’
में प्रतिपादित कर्मयोग के सिद्धांतों के अनुसार, वे एक निर्विवाद निष्काम कर्मयोगी थे, जिन्होंने भारतीय संस्कृति के उपासक तथा राजनीतिज्ञ दोनों ही रूप में एक विश्व नागरिक की भांति मानव
समाज का प्रतिनिधित्व किया | वे आज हमारे बीच नहीं हैं, पर उनका ज्ञानालोक सदा हमारा मार्ग प्रदीप्त करता रहेगा |

Dr. Rajendra Prasad



पूरा नाम  – राजेंद्र प्रसाद महादेव सहाय
जन्म       – 3 दिसंबर 1884
जन्मस्थान – जिरादेई (जि. सारन, बिहार)
पिता       – महादेव
माता       – कमलेश्वरी देवी
शिक्षा      – 1907  में कोलकता विश्वविद्यालय से M.A., 1910 में बॅचलर ऑफ लॉ उत्तीर्ण, 1915 में मास्टर ऑफ लॉ उत्तीर्ण।

जन्म और शिक्षा

डॉ राजेन्‍द्र प्रसाद का जन्‍म 3 दिसम्बर 1884 को बिहार प्रान्त के एक छोटे से गाँव जीरादेयू हुआ था। राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज मूलरूप से कुआँगाँव, अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। यह

एक कायस्थ परिवार था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को छोड़ कर बलिया जा बसे थे। कुछ परिवारों को बलिया भी रास नहीं आया इसलिये वे वहाँ से बिहार के जिला सारन के एक गाँव

जीरादेई में जा बसे। इन परिवारों में कुछ शिक्षित लोग भी थे। इन्हीं परिवारों में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का परिवार भी था। जीरादेई के पास ही एक छोटी सी रियासत थी - हथुआ। चूँकि

राजेन्द्र बाबू के दादा पढ़े-लिखे थे, अतः उन्हें हथुआ रियासत की दीवानी मिल गई। पच्चीस-तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान रहे। उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी। राजेन्द्र

बाबू के पिता महादेव सहाय इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र बाबू के चाचा जगदेव सहाय भी घर पर ही रहकर जमींदारी का काम देखते थे। अपने पाँच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे

थे इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे। उनके चाचा के चूँकि कोई संतान नहीं थी इसलिए वे राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र की भाँति ही समझते थे। दादा, पिता और चाचा के लाड़-प्यार में ही

राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ। दादी और माँ का भी उन पर पूर्ण प्रेम बरसता था।
राजेन्द्र प्रसाद के पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं। पाँच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से

फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेंद्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्य काल में ही, लगभग 13

वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना की टी० के० घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके

अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी।
लेकिन वे जल्द ही जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थानपप हुआ था। सन्

1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर

आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू

कानून की अपनी पढाई का अभ्यास भागलपुर, बिहार में कया करते थे।

राजनीतिक कैरियर

डॉ। प्रसाद ने एक शांत और हल्के ढंग से राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश किया। 1906 में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता सत्र में एक स्वयंसेवक के रूप में भाग लिया और 1911 में औपचारिक रूप से पार्टी में शामिल हो गए।
बाद में वह एआईसीसी के लिए चुने गए।  1917 में, महात्मा गांधी ने ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा इंडिगो की सशक्त खेती के खिलाफ किसानों के विद्रोह के कारणों के समर्थन में चंपारण की यात्रा की। गांधीजी ने  डॉ। प्रसाद को किसानों और ब्रिटिश दोनों के दावों के बारे में एक तथ्य खोजने का मिशन करने के लिए आमंत्रित किया।
हालांकि वे  शुरू में उलझन में थे लेकिन वे  गांधीजी की आस्था, समर्पण और दर्शन से प्रभावित थे। गांधी ने ‘चंपारण सत्याग्रह’ की शुरुआत की और डॉ प्रसाद ने उनके पूरे दिल से उनका समर्थन किया।
1920 में,  जब गांधी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की घोषणा की, डॉ। प्रसाद ने अपनी कानून प्रेक्टिस को छोड़ दिया और स्वतंत्रता आन्दोलन में खुद को समर्पित कर दिया। उन्होंने बिहार में असहयोग के कार्यक्रमों का नेतृत्व किया।
उन्होंने राज्य का दौरा किया, सार्वजनिक बैठकों का आयोजन किया और आंदोलन के समर्थन के लिए दिल से भाषण दिया। आंदोलन को जारी रखने के लिए उन्होंने धन का संग्रह किया। उन्होंने लोगों से सरकारी स्कूलों, कॉलेजों और कार्यालयों का बहिष्कार करने का आग्रह किया।
ब्रिटिश प्रायोजित शैक्षिक संस्थानों में भाग लेने के लिए गांधी के बहिष्कार के समर्थन के संकेत के रूप में, डॉ। प्रसाद ने अपने बेटे श्रीमतीनुयायाया प्रसाद को विश्वविद्यालय छोड़ने और बिहार विश्वविद्यालय से जुड़ने के लिए कहा।
1921 में  उन्होंने पटना में नेशनल कॉलेज शुरू किया था। उन्होंने स्वदेशी के विचारों को बरकरार रखा, लोगों को विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने के लिए कहा, साथ ही साथ लोगों से कहा-कताई के पहिये का इस्तेमाल करें  और केवल खादी वस्त्र पहनें।

कृतियाँ

राजेन्द्र बाबू ने अपनी आत्मकथा (1946) के अतिरिक्त कई पुस्तकें भी लिखी जिनमें बापू के कदमों में (1954), इण्डिया डिवाइडेड (1946), सत्याग्रह ऐट चम्पारण (1922), गान्धीजी की देन, भारतीय संस्कृति व खादी का अर्थशास्त्र इत्यादि उल्लेखनीय हैं।

भारत रत्न

सन 1962 में अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें "भारत रत्‍न" की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। यह उस पुत्र के लिये कृतज्ञता का प्रतीक था जिसने अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर
आधी शताब्दी तक अपनी मातृभूमि की सेवा की थी।

निधन

अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर 28 फ़रवरी 1963 में उनके जीवन की कहानी समाप्त हुई। हमको इन पर गर्व है और ये सदा राष्ट्र को प्रेरणा देते रहेंगे।