Wednesday 24 January 2018

Shaheed Bhagat Singh

 
क्रांतिकारी भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को पंजाब प्रांत, ज़िला-लयालपुर, के बावली गाँव मे हुआ था, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है। पाकिस्तान मे भी भगत सिंह को आज़ादी के दीवाने की तरह याद किया जाता है। भगत सिंह के पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था।ये एक सिख परिवार से थे और इनके परिवार के लोगों में भी देशभक्ति की भावना थी। भगत सिंह के जन्म के समय ही इनके पिता और 2 चाचा जेल से आजाद हुए थे जो पहले से मातृभूमि की आजादी के लिए प्रयास कर रहे थे। बचपन से ही भगत सिंह को देशभक्ति की भावना वाला माहौल मिला और इसी तरह इस भावना ने उनके जेहन में एक गहरी छाप छोड़ी। वीर भगत सिंह सपने में भी देश की आजादी के बारे में सोचा करते। जिस इंसान के अंदर बचपन से ही इतनी देशभक्ति की भावना हो, उससे बड़ा देशभक्त कोई दूसरा हो ही नहीं सकता।इंनके दादा इतने स्वाभिमानी थे कि उन्होंने ब्रिटिश स्कूल में भगत सिंह को पढ़ाने से मना कर दिया तो गाँव के ही आर्य समाज के स्कूल में इनकी बाल्य शिक्षा हुई । 1919 में जब जलियाँ वाला कांड हुआ जिसमें हजारों निहत्थों पर गोलियाँ चलाई गयीं, उन दिनों भगत सिंह मात्र 12 साल के थे इस घटना ने उनके आक्रोश को बहुत बढ़ावा दिया। इसके बाद मात्र 14 साल की उम्र में, जब 20 फरवरी 1921 को गुरुद्वारा नानक साहिब पे लोगों पर गोलियाँ चलाई गयीं तो भगत सिंह ने इसके विरोध में प्रदर्शनकारियों में हिस्सा लिया। एक तरफ जहाँ महात्मा गांधी ने अहिंसा का विचार रखा था वहीं 1922 में जब चौरा चौरी हत्याकांड हुआ तो भगत का खून खौल उठा और उन्होंने मात्र 15 साल की उम्र में युवा क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लिया और ये उस गुट के सरदार भी बने।भगत सिंह के परिवार के लोग महात्मा गाँधी के विचारो से बहुत प्रेरित थे और स्वराज को अहिंसा के माद्यम से पाने को सही मानते थे। वो साथ ही भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस और उनके असहयोग आन्दोलन का भी समर्थन करते थे। पर जब चौरी-चौरा के हिंसक घटनाओं के बाद गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया तब भगत सिंह गाँधी जी से नाराज़ हुए और वो गांधी जी अहिंसा आन्दोलन से अलग हो गए।जब वे अपनी ग्रेजुएशन की पढाई कर रहे थे तो उनके माता-पिता ने उनका विवाह करवाने का सोचा पर उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि – अगर मेरा विवाह गुलाम भारत में हुआ तो मेरी पत्नी की मौत हो जाएगी। उसके बाद वो कानपूर चले गए।जब उनके माता पिता ने उन्हें आश्वासन दिया की वो उनको विवाह के लिए मजबूर नहीं करेंगे तो वो वापस अपने घर लौट गए।वैसे तो भगत सिंह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लिखा करते थे और उनके खिलाफ पर्चे छपवा कर बांटा करते थे पर अकाली आन्दोलन के बाद वो ब्रिटिश सर्कार की नज़र में ज्यादा आये और उन्हें पुलिस ने 1926, लाहौर के बम धमाके मामले में जेल में डाल दिया गया। उन्हें 5 महीने के बाद 60000 रुपए के मुचलके पर छोड़ दिया गया।30 अक्टूबर 1928 को लाला लाजपत राय ने सभी पार्टियों के साथ मिलकर लाहौर रेलवे स्टेशन की और मोर्चा निकाला। यह मोर्चा साइमन कमीशन के विरोध में किया गया था। इस मोर्चे को रोकने के लिए पुलिस ने बहुत ही बुरी तरीके से लाठी चार्ज किया जिसमें लाला लाजपत राय को बहुत ज्यादा चोट लग गयी थी जिसके चलते 17 नवम्बर 1928 को उनकी मृत्यु हो गयी। लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिए भगत सिंह ने जेम्स ए स्कॉट को मारने का योजना बनाया, जो ब्रिटिश सुपरिटेंडेंट ऑफ़ पुलिस था पर गलती से जे पी सॉन्डर्स, असिस्टेंट सुपरिटेंडेंट ऑफ़ पुलिस की मृत्यु हो गयी।भगत सिंह यद्यपि रक्तपात के पक्षधर नहीं थे परन्तु वे वामपंथी (कम्युनिष्ठ ) विचारधारा पर चलते थे, तथा कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से पूरी तरह प्रभावित थे। यही नहीं, वे समाजवाद के पक्के पोषक भी थे। इसी कारण से उन्हें पूँजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थीमजदूर विरोधी ऐसी नीतियों को ब्रिटिश संसद में पारित न होने देना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अँग्रेजों को पता चलना चाहिये कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के प्रति आक्रोश है। ऐसा करने के लिये ही उन्होंने दिल्ली की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की योजना बनायी थी।भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो और अँग्रेजों तक उनकी 'आवाज़' भी पहुँचे। हालाँकि प्रारम्भ में उनके दल के सब लोग ऐसा नहीं सोचते थे पर अन्त में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार 8 अप्रैल 1929 को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था, अन्यथा उसे चोट लग सकती थी। पूरा हाल धुएँ से भर गया। भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो; अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। बम फटने के बाद उन्होंने "इंकलाब-जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद-मुर्दाबाद!" का नारा लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिये। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया।जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल रहे। इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रान्तिकारी विचार व्यक्त करते रहे। जेल में रहते हुए उनका अध्ययन बराबर जारी रहा। उनके उस दौरान लिखे गये लेख व सगे सम्बन्धियों को लिखे गये पत्र आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं। अपने लेखों में उन्होंने कई तरह से पूँजीपतियों को अपना शत्रु बताया है। उन्होंने लिखा कि मजदूरों का शोषण करने वाला चाहें एक भारतीय ही क्यों न हो, वह उनका शत्रु है। उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ? जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने ६४ दिनों तक भूख हडताल की। उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख हड़ताल में अपने प्राण ही त्याग दिये थे। 26 अगस्त, 1930 को अदालत ने भगत सिंह को अपराधी सिद्ध किया। 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत के द्वारा 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई। इसके बाद भगत सिंह की फांसी की माफी के लिए प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई। इसके बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने सजा माफी के लिए 14 फरवरी, 1931 को अपील दायर की कि वह अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए मानवता के आधार पर फांसी की सजा माफ कर दें। भगत सिंह की फांसी की सज़ा माफ़ करवाने हेतु महात्मा गांधी ने 17 फरवरी 1931 को वायसराय से बात की फिर 18 फरवरी, 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के सामने विभिन्न तर्को के साथ सजा माफी के लिए अपील दायर की। यह सब कुछ भगत सिंह की इच्छा के खिलाफ हो रहा था क्यों कि भगत सिंह नहीं चाहते थे कि उनकी सजा माफ की जाए। 23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई। फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले। फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया। कहा जाता है कि भगत सिंह जब पहली बार चन्द्रशेखर आजाद से मिले थे तो इन्होने उनके सामने जलती हुई मोमबत्ती पर हाथ रखकर यह कसम खायी थी कि उनकी आखिरी साँस तक वो देश के लिए कुर्बान होने के लिए समर्पित है | उन्होंने अपना यह वादा पूरा कर दिखाया |

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