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Saturday 20 January 2018

Jainendra Kumar


जीवन परिचय

जैनेंद्र कुमार का जन्म 2 जनवरी सन 1905, में अलीगढ़ के कौड़ियागंज गांव में हुआ। उनके बचपन का नाम आनंदीलाल था। इनकी मुख्य देन उपन्यास तथा कहानी है। एक साहित्य विचारक के रूप में भी इनका स्थान मान्य है। इनके जन्म के दो वर्ष पश्चात इनके पिता की मृत्यु हो गई। इनकी माता एवं मामा ने ही इनका पालन-पोषण किया। इनके मामा ने हस्तिनापुर में एक गुरुकुल की स्थापना की थी। वहीं जैनेंद्र की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा हुई। उनका नामकरण भी इसी संस्था में हुआ। उनका घर का नाम आनंदी लाल था। सन 1912 में उन्होंने गुरुकुल छोड़ दिया। प्राइवेट रूप से मैट्रिक परीक्षा में बैठने की तैयारी के लिए वह बिजनौर आ गए। 1919 में उन्होंने यह परीक्षा बिजनौर से न देकर पंजाब से उत्तीर्ण की। जैनेंद्र की उच्च शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हुई। 1921 में उन्होंने विश्वविद्यालय की पढ़ाई छोड़ दी और कांग्रेस के असहयोग आंदोलन में भाग लेने के उद्देश्य से दिल्ली आ गए। कुछ समय के लिए ये लाला लाजपत राय के 'तिलक स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स' में भी रहे, परंतु अंत में उसे भी छोड़ दिया।

साहित्यिक परिचय


'फाँसी' इनका पहला कहानी संग्रह था, जिसने इनको प्रसिद्ध कहानीकार बना दिया। उपन्यास 'परख' से सन्‌ 1929 में पहचान बनी। 'सुनीता' का प्रकाशन 1935 में हुआ। 'त्यागपत्र' 1937 में और 'कल्याणी' 1939 में प्रकाशित हुए। 1929 में पहला कहानी-संग्रह 'फाँसी' छपा। इसके बाद 1930 में 'वातायन', 1933 में 'नीलम देश की राजकन्या', 1934 में 'एक रात', 1935 में 'दो चिड़ियाँ' और 1942 में 'पाजेब' का प्रकाशन हुआ। अब तो 'जैनेन्द्र की कहानियां' सात भागों उपलब्ध हैं। उनके अन्य महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं- 'विवर्त,' 'सुखदा', 'व्यतीत', 'जयवर्धन' और 'दशार्क'। 'प्रस्तुत प्रश्न', 'जड़ की बात', 'पूर्वोदय', 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', 'मंथन', 'सोच-विचार', 'काम और परिवार', 'ये और वे' इनके निबंध संग्रह हैं। तालस्तोय की रचनाओं का इनका अनुवाद उल्लेखनीय है। 'समय और हम' प्रश्नोत्तर शैली में जैनेन्द्र को समझने की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है।

प्रमुख कृतियाँ

उपन्यास

    परख, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, विवर्त, सुखदा, व्यतीत, जयवर्धन

कहानी संग्रह

फाँसी, वातायन, नीलम देश की राजकन्या, एक रात, दो चिड़ियाँ, पाजेब,जयसंधि, जैनेन्द्र की कहानियाँ

निबंध संग्रह

प्रस्तुत प्रश्न, जड़ की बात, पूर्वोदय, साहित्य का श्रेय और प्रेय' (1953), मंथन' (1953), सोच विचार' (1953), काम, प्रेम और परिवार(1953), ये और वे(1954)

अनूदित ग्रंथ

मंदालिनी (नाटक-1935)
प्रेम में भगवान् (कहानी संग्रह-1937)
पाप और प्रकाश (नाटक-1953)।

संपादित ग्रंथ

साहित्य चयन (निबंध संग्रह-1951)
विचारवल्लरी (निबंध संग्रह-1952)

निधन

24 दिसंबर 1988 को उनका निधन हो गया।

Bhagwaticharan Verma


जीवन परिचय

हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार भगवतीचरण वर्मा का जन्म 30 अगस्त, 1903 ई. में उन्नाव ज़िले, उत्तर प्रदेश के शफीपुर गाँव में हुआ था। इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए., एल.एल.बी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। भगवतीचरण वर्मा जी ने लेखन तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में ही प्रमुख रूप से कार्य किया। इसके बीच-बीच में इनके फ़िल्म तथा आकाशवाणी से भी सम्बद्ध रहे। बाद में यह स्वतंत्र लेखन की वृत्ति अपनाकर लखनऊ में बस गये। इन्हें राज्यसभा की मानद सदस्यता प्राप्त करायी गई।

 कृतियाँ

कवि के रूप में भगवतीचरण वर्मा के रेडियो रूपक 'महाकाल', 'कर्ण' और 'द्रोपदी'- जो 1956 ई. में 'त्रिपथगा' के नाम से एक संकलन के आकार में प्रकाशित हुए हैं, उनकी विशिष्ट कृतियाँ हैं। यद्यपि उनकी प्रसिद्ध कविता 'भैंसागाड़ी' का आधुनिक हिन्दी कविता के इतिहास में अपना महत्त्व है। मानववादी दृष्टिकोण के तत्व, जिनके आधार पर प्रगतिवादी काव्यधारा जानी-पहचानी जाने लगी, 'भैंसागाड़ी' में भली-भाँति उभर कर सामने आये थे। उनका पहला कविता संग्रह 'मधुकण' के नाम से 1932 ई. में प्रकाशित हुआ। तदनन्तर दो और काव्य संग्रह 'प्रेम संगीत' और 'मानव' निकले। इन्हें किसी 'वाद' विशेष के अंतर्गत मानना ग़लत है। रूमानी मस्ती, नियतिवाद, प्रगतिवाद, अन्तत: मानववाद इनकी विशिष्टता है।

उपन्यास

पतन (1928), चित्रलेखा (1934), तीन वर्ष, टेढे़-मेढे रास्ते (1946), अपने खिलौने (1957), भूले-बिसरे चित्र (1959), वह फिर नहीं आई, सामर्थ्य और सीमा (1962), थके पाँव, रेखा, सीधी सच्ची बातें, युवराज चूण्डा, सबहिं नचावत राम गोसाईं, प्रश्न और मरीचिका, धुप्पल,चाणक्य।

कहानी-संग्रह

मोर्चाबंदी।

कविता-संग्रह

मधुकण (1932),तदन्तर दो और काव्यसंग्रह- 'प्रेम-संगीत' और 'मानव' निकले।

नाटक

वसीहत,रुपया तुम्हें खा गया।

संस्मरण

अतीत के गर्भ से।

साहित्यालोचन

साहित्य के सिद्घान्त,रुप।

पुरस्कार

भगवतीचरण वर्मा को भूले बिसरे चित्र पर साहित्य अकादमी पुरस्कार और पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।

मृत्यु

भगवतीचरण वर्मा का निधन 5 अक्टूबर, 1981 ई. को हुआ था।

Munshi Premchand


धनपत राय श्रीवास्तव उर्फ़ नवाब राय उर्फ़ मुंशी प्रेमचंद
जन्म    – 31 जुलाई 1880 बनारस
पिता    – अजीब राय
माता    – आनंदी देवी
पत्नी  – शिवरानी देवी

प्रारंभिक जीवन

प्रेमचंद जी का जन्म 31जुलाई, 1880 को वनारस के पास एक गाँव लम्ही में, ब्रिटिश भारत के समय हुआ। उनका बचपन में नाम धनपत राय श्रीवास्तव रखा गया था। उनके पिता अजीब राय, पोस्ट ऑफिस में एक क्लर्क थे और माता आनंदी देवी एक गृहणी थी। प्रेमचंद जी के चार भाई बहन थे।
उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मदरसा, लालपुर में उर्दू और फारसी शिक्षा के रूप में लिया। बाद में उन्होंने अपनी अंग्रेज़ी की पढाई एक मिशन स्कूल से पूर्ण किया।
जब वे आठ वर्ष के थे तो उनकी माता की मृत्यु हो गयी थी। उनके पिताजी ने दूसरी शादी भी की थी। वे अपने सौतेली माँ से अच्छे से घुल मिल नहीं पाते थे और ज्यादातर समय दुखी और तन्हाई में गुजारते थे। वे अकेले में अपना समय किताबे पढने में गुज़रते थे और ऐसा करते-करते वे किताबों के शौक़ीन बन गए।
वर्ष 1897 में उनके पिता की भी मृत्यु हो गयी और उसके पश्चात प्रेमचंद ने अपनी पढाई छोड़ दी।

लेखन कार्य

प्रेमचन्द को आधुनिक हिंदी कहानी के जनक माने जाते है। उनके लेखन की पहली शुरुआत 1901 में शुरू हुआ, उनकी पहली कहानी की शुरुआत 1907 में हुआ। हिंदी और उर्दू भाषा पर तो उनका विशेष अधिकार था। प्रेमचन्द के कार्यो के कारण ही इन्हें हिंदी आधुनिक युग का प्रवर्तक भी कहा जाता है।
बचपन से ही वकील बनने की चाहत रखने वाले प्रेमचन्द कभी भी अपनी गरीबी से अपनी साहित्यिक रूचि को पीछे नही छोड़ा बल्कि जैसे जैसे जीवन की उम्र के पड़ाव को पार करते जा रहे है। उनकी लेखनी और साहित्य के प्रति समर्पण भी बढ़ता जा रहा था अंग्रेजो के अत्याचार से उस समय पूरा देश दुखी था और गांधीजी के आह्वान पर उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी भी छोड़ दी और 1930 में बनारस शहर से अपनी मासिक पत्रिका हंस की शुरुआत किया इसके बाद 1934 में वे मुंबई चले गये जहा पर उन्होंने फिल्म ‘मजदूर’ के लिए कहानी लिखा जो 1934 में भारतीय सिनेमा में प्रदर्शित हुआ लेकिन प्रेमचन्द को मुंबई की शहरी जीवन उन्हें पसंद नही आ रहा था जिसके चलते वे सिनेटोन कम्पनी से लेखक के रूप में नाता तोड़कर वे वापस अपने शहर बनारस को लौट आये। प्रेमचन्द की कहानिया इतनी सजीव होती थी की उन्हें पढ़कर ऐसा लगता है की उन कहानियो में लिखी गयी कथाये हमारे आसपास की ही प्रतीत होती है।

उपन्यास

गोदान,
कर्मभूमि ,
निर्मला ,
कायाकल्प,
रंगभूमि ,
सेवासदन,
गबन । 

कहानियाँ

नमक का दरोगा,
दो बैलो की कथा,
पूस की रात,
पंच परमेश्वर,
माता का हृदय,
नरक का मार्ग ,
वफ़ा का खंजर,
पुत्र प्रेम,
घमंड का पुतला,
बंद दरवाजा,
कायापलट,
मंदिर और मस्जिद,
प्रेम सूत्र,
माँ,
वरदान,
काशी में आगमन ,
बेटो वाली विधवा,
सभ्यता का रहस्य,
कर्मो का फल,
कफन,
बड़े घर की बेटी,
राष्ट्र का सेवक,
ईदगाह।

मृत्यु

स्वास्थ्य ख़राब होने के कारण 8 अक्टूबर 1936 को उनका निधन हो गया।