Saturday, 17 June 2017

Kabir das


जन्म 

कबीर के जीवन चरित से सम्बद्ध प्रामाणिक सामग्री का पूर्णतया आभाव है, तथापि विभिन्न विद्वान् कबीरपन्थियो के ग्रन्थ कबीर चरित्र बोध कि निम्नलिखित उक्ति के आधार पर इनका जन्म ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा ,सोमवार संवत 1455 वि.(1398 ई.) में होना स्वीकार करते है -

"चौदह सौ पचपन साल  गये, चंद्रवार एक ठाट ठये।
जेठ सुदी बरसायत को, पूनरमासी प्रकट भये।।''

कतिपय विद्वानों का विचार है कि इस वर्ष कि ज्येष्ठ पूर्णिमा सोमवार को नहीं थी | संवत 1456 वि. में ज्येष्ठ पूर्णिमा सोमवार को पड़ती है यदि इसे ही उचित मन जाये  तो कबीर का जन्म संवत  1456 वि. (1399 ई.) में हुआ मन जाना चाहिए | 
कबीर के जन्म में अनेक किंवदन्तिया परचलित है | एक किंवदन्ती  के अनुसार , काशी में स्वामी रामानंद नाम का एक ब्राह्मण भक्त था | इसकी किसी विधवा कन्या को स्वामी जी ने भूलवश पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया | पुत्रवती  होने पर उसने लोक लाज के भय से पुत्र को कासी में लहरतारा नमक स्थान के पास छोड़ दिया | यही से नीरू नाम का जुलहा और उसकी पत्नी नीमा उसको उठा लाये और पालन पोषण  करने लगे यही बालक आगे चलकर कबीरदास हुए |
कबीर पंथी कबीर का जन्म ही नहीं मानते | उनका मानना है कि जब आकाश घटाटोप मेघो से आच्छादित था और बिजली चमक रही थी ,उसी समय लहर तारा नामक स्थान पर तालाब में एक कमल प्रकट हुआ, फिर वह ज्योतिरूप में परिणत हुआ और यह ब्रह्मस्वरूप ज्योति ही कबीर है |
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि किसी सौभाग्यवती माता ने कबीर को निश्चित रूप से जन्म दिया था और इनका पालन पोषण जुलाहा परिवार में हुआ |

पारिवारिक जीवन

कबीर का विवाह वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या "लोई' के साथ हुआ था। कबीर को कमाल और कमाली नाम की दो संतान भी थी। ग्रंथ साहब के एक श्लोक से विदित होता है कि कबीर का पुत्र कमाल उनके मत का विरोधी था।

    बूड़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल।
    हरि का सिमरन छोडि के, घर ले आया माल।

कबीर की पुत्री कमाली का उल्लेख उनकी बानियों में कहीं नहीं मिलता है। कहा जाता है कि कबीर के घर में रात- दिन मुडियों का जमघट रहने से बच्चों को रोटी तक मिलना कठिन हो गया था। इस कारण से कबीर की पत्नी झुंझला उठती थी। एक जगह कबीर उसको समझाते हैं :-

    सुनि अंघली लोई बंपीर।
    इन मुड़ियन भजि सरन कबीर।।

जबकि कबीर को कबीर पंथ में, बाल- ब्रह्मचारी और विराणी माना जाता है। इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या। लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रुप में भी किया है। वस्तुतः कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे। एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं :-

    "कहत कबीर सुनहु रे लोई।
    हरि बिन राखन हार न कोई।।'

यह हो सकता हो कि पहले लोई पत्नी होगी, बाद में कबीर ने इसे शिष्या बना लिया हो। उन्होंने स्पष्ट कहा है :-

    ""नारी तो हम भी करी, पाया नहीं विचार।
    जब जानी तब परिहरि, नारी महा विकार।।''

शिक्षा

कबीर की शिक्षा-दीक्षा का अच्छा प्रबंध न हो सका। ये अनपढ ही रहे। इनका काम कपड़े बुनना था। ये जुलाहे का काम करते थे परन्तु साथ ही साथ साधु संगति और ईश्वर के भजन चिंतन में भी लगे रहते थे। कबीरदास ने अपना सारा जीवन ज्ञान देशाटन और साधु संगति से प्राप्त किया। ये पढ़े-लिखे नहीं थे परन्तु दूर-दूर के प्रदेशों की यात्रा कर साधु-संतों की संगति में बैठकर सम्पूर्ण धर्मों तथा समाज का गहरा अध्ययन किया।
कबीर के गुरु के सम्बन्ध में भी एक प्रवाद है | कबीर को उपयुक्त गुरु कि तलास थी पर वैसा कोई गुरु नहीं मिल रहा था | एक बार कबीर गंगा तट पर सोए हुए थे | उधर से स्वामी रामानंद जी स्नान के लिए गुजरे और अँधेरे में उनका पाव कबीर पर पड गया | स्वामी रामानंद जी राम राम कह बैठे | बस तभी से कबीर ने  रामानंद जी को अपना गुरु मन लिया | कबीर ने लिखा भी है -
"सतगुरु के परताप ते, मिट गये सब दुःख द्वन्द |
कह कबीर दुबिधा मिटी , गुरु मिलिया रामानंद ||"

मृत्यु

इनका प्रारम्भिक जीवन कशी में व्यतीत हुआ किन्तु  किसी करणवश जीवन के अंतिम भाग में ये मगहर में रहने लगे थे |
कबीरदास की मृत्यु के विषय में भी लोगों में मतभेद है। भक्तमाल की टीका में इनकी मृत्यु मगहर में संवत 1559 वि. अगहन शुक्ला एकादशी को उल्लिखित है | जबकि कबीर कि शिष्य धर्मदास संवत 1569 वि. मी इनका देहवसान मानते है | एक जन श्रुति  के अनुसार इन्होंने एक सौ बीस साल कि आयु पाई थी | इसके अनुसार माघ शुक्ल एकादशी संवत 1575 में इनका निधन मन जाता है | इसके समर्थन में निम्नलिखित उक्ति मिलती है -
"संवत पंद्रह सौ पछ्त्तरा ,कियो मगहर को गौन |
माघे सुदी एकादशी ,रलौ पौन में पौन  ||"

रचनाए

कबीदास की रचनाओं को उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र तथा शिष्यों ने 'बीजक' के नाम से संग्रहीत किया। इस बीजक के तीन भाग हैं-- (1) सबद (2) साखी (3) रमैनी। बाद में इनकी रचनाओं को 'कबीर ग्रंथावली' के नाम से संग्रहीत किया गया। कबीर की भाषा में ब्रज, अवधी, पंजाबी, राजस्थानी और अरबी फ़ारसी के शब्दों का मेल देखा जा सकता है। उनकी शैली उपदेशात्मक शैली है।  

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