Showing posts with label Great Poet. Show all posts
Showing posts with label Great Poet. Show all posts

Sunday 25 June 2017

Raskhan


पूरा नाम - रसखान
मूल नाम - सैयद इब्राहिम
जन्म - संवत 1635 (सन 1578)
जन्मस्थान - दिल्ली के आस-पास


रसखान कृष्ण भक्त मुस्लिम कवि थे। हिन्दी के कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन रीतिमुक्त कवियों में रसखान का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। रसखान को 'रस की खान' कहा गया है। इनके काव्य में भक्ति, शृंगार रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं।

जन्म


रसखान के जन्म के सम्बंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है। अनेक विद्वानों इनका जन्म संवत् 1615 ई. माना है और कुछ ने 1630 ई. माना है। रसखान के अनुसार गदर के कारण दिल्ली श्मशान बन चुकी थी, तब दिल्ली छोड़कर वह ब्रज (मथुरा) चले गए |
रसखान के जन्म स्थान के विषय में भी कई मतभेद है। कई विद्वान उनका जन्म स्थल पिहानी अथवा दिल्ली को मानते है। शिवसिंह सरोज तथा हिन्दी साहित्य के प्रथम इतिहास तथा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर रसखान का जन्म स्थान पिहानी जिला हरदोई माना जाए।

काव्य रचना

रसखान एक महान कवि थे। उनकी अधिकांश रचनायें भगवान कृष्ण को समर्पित हैं।
प्रमुख कृष्णभक्त कवि रसखान की अनुरक्ति न केवल कृष्ण के प्रति प्रकट हुई है बल्कि कृष्ण-भूमि के प्रति भी उनका अनन्य अनुराग व्यक्त हुआ है। उनके काव्य में कृष्ण की रूप-माधुरी, ब्रज-महिमा, राधा-कृष्ण की प्रेम-लीलाओं का मनोहर वर्णन मिलता है। वे अपनी प्रेम की तन्मयता, भाव-विह्नलता और आसक्ति के उल्लास के लिए जितने प्रसिद्ध हैं उतने ही अपनी भाषा की मार्मिकता, शब्द-चयन तथा व्यंजक शैली के लिए। उनके यहाँ ब्रजभाषा का अत्यंत सरस और मनोरम प्रयोग मिलता है, जिसमें ज़रा भी शब्दाडंबर नहीं है। निम्नलिखित सवैया में रसखान ने अगले जन्म के लिये ब्रज के आसपास उत्पन्न होने की कामना की है -

मानुष हों तो वही रसखान, बसौं नित गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तौ कहा बसु मेरौ, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।।

पाहन हौं तौ वही गिरि कौ जुधर्यौ कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरौं नित, कालिंदी-कूल कदंब की डारन।।

मृत्यु

सन् 1628 के लगभग इनकी मृत्यु हुई।

Monday 19 June 2017

Tulsidas


पूरा नाम – गोस्वामी तुलसीदास
जन्म – सवंत 1554
जन्मस्थान – राजापुर ( उत्तर प्रदेश )
पिता – आत्माराम दुबे
माता – हुलसी
विवाह – रत्नावली के साथ।

जन्म

अधिकांश विद्वान तुलसीदास का जन्म स्थान राजापुर को मानने के पक्ष में हैं। यद्यपि कुछ इसे सोरों शूकरक्षेत्र भी मानते हैं। राजापुर उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिला के अंतर्गत स्थित एक गाँव है। वहाँ आत्माराम दुबे नाम के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम हुलसी था। संवत् 1554 के श्रावण मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में इन्हीं दम्पति के यहाँ तुलसीदास का जन्म हुआ। इसके पक्ष में मूल गोसाईं-चरित की निम्नांकित पंक्तियों का विशेष उल्लेख किया जाता है-

पंद्रह सै चौवन विषै, कालिंदी के तीर,
सावन सुक्ला सत्तमी, तुलसी धरेउ शरीर ।

 प्रचलित जनश्रुति के अनुसार शिशु बारह महीने तक माँ के गर्भ में रहने के कारण अत्यधिक हृष्ट पुष्ट था और उसके मुख में दाँत दिखायी दे रहे थे। जन्म लेने के साथ ही उसने राम नाम का उच्चारण किया जिससे उसका नाम रामबोला पड़ गया। उनके जन्म के दूसरे ही दिन माँ का निधन हो गया। अंत: अशुभ मानकर उनको घर से त्याग दिया गया । त्याग दिये जाने के कारण संत नरहरिदास ने काशी में उनका पालन पोषण किया था।

गुरु

तुलसीदास के गुरु के रुप में कई व्यक्तियों के नाम लिए जाते हैं। भविष्यपुराण के अनुसार राघवानंद, विलसन के अनुसार जगन्नाथ दास, सोरों से प्राप्त तथ्यों के अनुसार नरसिंह चौधरी तथा ग्रियर्सन एवं अंतर्साक्ष्य के अनुसार नरहरि तुलसीदास के गुरु थे। राघवनंद के एवं जगन्नाथ दास गुरु होने की असंभवता सिद्ध हो चुकी है। वैष्णव संप्रदाय की किसी उपलब्ध सूची के आधार पर ग्रियर्सन द्वारा दी गई सूची में, जिसका उल्लेख राघवनंद तुलसीदास से आठ पीढ़ी पहले ही पड़ते हैं। ऐसी परिस्थिति में राघवानंद को तुलसीदास का गुरु नहीं माना जा सकता।
सोरों से प्राप्त सामग्रियों के अनुसार नरसिंह चौधरी तुलसीदास के गुरु थे। सोरों में नरसिंह जी के मंदिर तथा उनके वंशजों की विद्यमानता से यह पक्ष संपुष्ट हैं। लेकिन महात्मा बेनी माधव दास के "मूल गोसाईं-चरित' के अनुसार तुलसीदास जी के गुरु का नाम नरहरि है।

रामचरितमानस की रचना
संवत्‌ 1631 का प्रारम्भ हुआ। दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ। संवत्‌ 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये। इसके बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी चले आये। वहाँ उन्होंने भगवान्‌ विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया। रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गयी। प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो पुस्तक पर लिखा हुआ पाया गया-सत्यं शिवं सुन्दरम्‌ जिसके नीचे भगवान्‌ शंकर की सही (पुष्टि) थी। उस समय वहाँ उपस्थित लोगों ने "सत्यं शिवं सुन्दरम्‌" की आवाज भी कानों से सुनी।

रचनाये

तुलसीदास द्वारा रचित 12 रचनाये काफी लोकप्रिय है, जिनमे से 6 उनकी मुख्य रचनाये है और 6 छोटी रचनाये है। भाषा के आधार पर उन्हें दो समूहों में विभाजित किया गया है –

    1. अवधी कार्य – रामचरितमानस, रामलाल नहछू, बरवाई रामायण, पार्वती मंगल, जानकी मंगल और रामाज्ञा प्रश्न।
    2. ब्रज कार्य – कृष्णा गीतावली, गीतावली, साहित्य रत्न, दोहावली, वैराग्य संदीपनी और विनय पत्रिका।

इन 12 रचनाओ के अलावा तुलसीदास द्वारा रचित चार और रचनाये काफी प्रसिद्ध है जिनमे मुख्य रूप से हनुमान चालीसा, हनुमान अष्टक, हनुमान बहुक और तुलसी सतसाई शामिल है।

मृत्यु

संवत्‌ 1680 में श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को तुलसीदास जी ने "राम-राम" कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया। इनकी मृत्यु के सम्बंध में निम्नलिखित दोहा प्रसिद्ध है -

"संवत्‌ सोलह सौ असी ,असी गंग के तीर |
श्रावण शुक्ला सप्तमी , तुलसी तज्यो शरीर ||"



Sunday 18 June 2017

Surdas


नाम - सूरदास
जन्म - 1478 ई० में
जन्म स्थान - रुनकता नामक ग्राम में
पिता - रामदास
गुरु - बल्लभाचार्य
भाष - ब्रज भाषा
मृत्यु - 1583
मृत्यु स्थान - मथुरा के निकट पारसोली नामक ग्राम में

प्रारंभिक जीवन

सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषयो में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूरदास जी का जन्म 1478 ई० में मथुरा के निकट रुनकता नामक ग्राम में हुआ था | कुछ विद्वानों का मत है कि सूरदास का जन्म ‘सीही’ में हुआ था | लेकिन सूरदास के इतिहास को देखकर लगता है की उनका जन्म मथुरा के रुनकता ग्राम में हुआ था। इनका जन्म एक निर्धन ब्राम्ह्ण परिवार में हुआ था | बाद में ये गऊघाट में आकर रहने लगे | इनके पिता रामदास एक गायक थे | पारिवारिक अनदेखी की वजह से सूरदास जन्म से ही अंधे थे। सूरदास के अन्धे होने के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है | कुछ लोग इन्हें जन्मान्ध मानते हैं, परन्तु कुछ विद्वान कहते हैं कि इन्होंने जिस प्रकार श्री कृष्ण की बाललीलाओं का सूक्ष्म एवं सजीव वर्णन किया है, उससे तो इनका जन्मान्ध होना असंभव प्रतीत होता है | सूरदास जब गऊघाट में रहते थे तो इसी पर इनकी मुलाकात बल्लभाचार्य से हुई और सूरदास उनके शिष्य बन गए | एक दिन सूरदास ने बल्लभाचार्य को स्वरचित एक पद सुनाया जिससे प्रसन्न होकर इनके गुरु में इन्हें श्री कृष्ण पर पद गाने के लिए कहा | फिर बल्लभाचार्य ने इन्हें गोबर्धन पर्वत पर स्थित श्रीनाथ जी के मंदिर में कीर्तन करने के लिए नियुक्त किया |

सूरदास एक कवी के रूप में

रदास हिंदी भाषा के सूर्य कहे जाते हैं इनकी रचनाओं में कृष्ण की भक्ति का वर्णन मिलता हैं । इनकी सूरसागर, सूर सारावली, साहित्य लहरी, नल दमयन्ती,ब्याहलों रचनाये प्रसिद्ध हैं ।
रदास जी कूट नीति के क्षेत्र में भी काव्य रचना करते हैं ।
सूरदास जी ने अपने पदों के द्वारा यह संदेश दिया हैं कि भक्ति सभी बातों से श्रेष्ठ हैं ।
उनके पदों में वात्सल्य, श्रृंगार एवम शांत रस के भाव मिलते हैं ।
सूरदास जी के पद ब्रज भाषा में लिखे गये हैं । सूरसागर नामक इनकी रचना सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं ।
उनके पदों में कृष्ण के बाल काल का ऐसा वर्णन हैं मानों उन्होंने यह सब स्वयं देखा हो । यह अपनी रचनाओं में सजीवता को बिखेरते हैं ।
इनकी रचनाओं में प्रकृति का भी वर्णन हैं जो मन को भाव विभोर कर देता हैं।

रचनाएं

सूरदास की रचनाओं में निम्नलिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं -
1. सूरसागर
2. सूरसारावली
3. साहित्य-लहरी
4. नल-दमयन्ती
5. ब्याहलो

उपरोक्त में अन्तिम दो ग्रंथ अप्राप्य हैं।

नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के १६ ग्रन्थों का उल्लेख है। इनमें सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो के अतिरिक्त दशमस्कंध टीका, नागलीला, भागवत्, गोवर्धन लीला, सूरपचीसी, सूरसागर सार, प्राणप्यारी, आदि ग्रन्थ सम्मिलित हैं। इनमें प्रारम्भ के तीन ग्रंथ ही महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं।

मृत्यु

इनके मृत्यु वर्ष के संबंध में भी मतभेद भी है।उनके मृत्यु वर्ष को 1580 से 1584 माना जाता है।

Saturday 17 June 2017

Kabir das


जन्म 

कबीर के जीवन चरित से सम्बद्ध प्रामाणिक सामग्री का पूर्णतया आभाव है, तथापि विभिन्न विद्वान् कबीरपन्थियो के ग्रन्थ कबीर चरित्र बोध कि निम्नलिखित उक्ति के आधार पर इनका जन्म ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा ,सोमवार संवत 1455 वि.(1398 ई.) में होना स्वीकार करते है -

"चौदह सौ पचपन साल  गये, चंद्रवार एक ठाट ठये।
जेठ सुदी बरसायत को, पूनरमासी प्रकट भये।।''

कतिपय विद्वानों का विचार है कि इस वर्ष कि ज्येष्ठ पूर्णिमा सोमवार को नहीं थी | संवत 1456 वि. में ज्येष्ठ पूर्णिमा सोमवार को पड़ती है यदि इसे ही उचित मन जाये  तो कबीर का जन्म संवत  1456 वि. (1399 ई.) में हुआ मन जाना चाहिए | 
कबीर के जन्म में अनेक किंवदन्तिया परचलित है | एक किंवदन्ती  के अनुसार , काशी में स्वामी रामानंद नाम का एक ब्राह्मण भक्त था | इसकी किसी विधवा कन्या को स्वामी जी ने भूलवश पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया | पुत्रवती  होने पर उसने लोक लाज के भय से पुत्र को कासी में लहरतारा नमक स्थान के पास छोड़ दिया | यही से नीरू नाम का जुलहा और उसकी पत्नी नीमा उसको उठा लाये और पालन पोषण  करने लगे यही बालक आगे चलकर कबीरदास हुए |
कबीर पंथी कबीर का जन्म ही नहीं मानते | उनका मानना है कि जब आकाश घटाटोप मेघो से आच्छादित था और बिजली चमक रही थी ,उसी समय लहर तारा नामक स्थान पर तालाब में एक कमल प्रकट हुआ, फिर वह ज्योतिरूप में परिणत हुआ और यह ब्रह्मस्वरूप ज्योति ही कबीर है |
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि किसी सौभाग्यवती माता ने कबीर को निश्चित रूप से जन्म दिया था और इनका पालन पोषण जुलाहा परिवार में हुआ |

पारिवारिक जीवन

कबीर का विवाह वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या "लोई' के साथ हुआ था। कबीर को कमाल और कमाली नाम की दो संतान भी थी। ग्रंथ साहब के एक श्लोक से विदित होता है कि कबीर का पुत्र कमाल उनके मत का विरोधी था।

    बूड़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल।
    हरि का सिमरन छोडि के, घर ले आया माल।

कबीर की पुत्री कमाली का उल्लेख उनकी बानियों में कहीं नहीं मिलता है। कहा जाता है कि कबीर के घर में रात- दिन मुडियों का जमघट रहने से बच्चों को रोटी तक मिलना कठिन हो गया था। इस कारण से कबीर की पत्नी झुंझला उठती थी। एक जगह कबीर उसको समझाते हैं :-

    सुनि अंघली लोई बंपीर।
    इन मुड़ियन भजि सरन कबीर।।

जबकि कबीर को कबीर पंथ में, बाल- ब्रह्मचारी और विराणी माना जाता है। इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या। लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रुप में भी किया है। वस्तुतः कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे। एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं :-

    "कहत कबीर सुनहु रे लोई।
    हरि बिन राखन हार न कोई।।'

यह हो सकता हो कि पहले लोई पत्नी होगी, बाद में कबीर ने इसे शिष्या बना लिया हो। उन्होंने स्पष्ट कहा है :-

    ""नारी तो हम भी करी, पाया नहीं विचार।
    जब जानी तब परिहरि, नारी महा विकार।।''

शिक्षा

कबीर की शिक्षा-दीक्षा का अच्छा प्रबंध न हो सका। ये अनपढ ही रहे। इनका काम कपड़े बुनना था। ये जुलाहे का काम करते थे परन्तु साथ ही साथ साधु संगति और ईश्वर के भजन चिंतन में भी लगे रहते थे। कबीरदास ने अपना सारा जीवन ज्ञान देशाटन और साधु संगति से प्राप्त किया। ये पढ़े-लिखे नहीं थे परन्तु दूर-दूर के प्रदेशों की यात्रा कर साधु-संतों की संगति में बैठकर सम्पूर्ण धर्मों तथा समाज का गहरा अध्ययन किया।
कबीर के गुरु के सम्बन्ध में भी एक प्रवाद है | कबीर को उपयुक्त गुरु कि तलास थी पर वैसा कोई गुरु नहीं मिल रहा था | एक बार कबीर गंगा तट पर सोए हुए थे | उधर से स्वामी रामानंद जी स्नान के लिए गुजरे और अँधेरे में उनका पाव कबीर पर पड गया | स्वामी रामानंद जी राम राम कह बैठे | बस तभी से कबीर ने  रामानंद जी को अपना गुरु मन लिया | कबीर ने लिखा भी है -
"सतगुरु के परताप ते, मिट गये सब दुःख द्वन्द |
कह कबीर दुबिधा मिटी , गुरु मिलिया रामानंद ||"

मृत्यु

इनका प्रारम्भिक जीवन कशी में व्यतीत हुआ किन्तु  किसी करणवश जीवन के अंतिम भाग में ये मगहर में रहने लगे थे |
कबीरदास की मृत्यु के विषय में भी लोगों में मतभेद है। भक्तमाल की टीका में इनकी मृत्यु मगहर में संवत 1559 वि. अगहन शुक्ला एकादशी को उल्लिखित है | जबकि कबीर कि शिष्य धर्मदास संवत 1569 वि. मी इनका देहवसान मानते है | एक जन श्रुति  के अनुसार इन्होंने एक सौ बीस साल कि आयु पाई थी | इसके अनुसार माघ शुक्ल एकादशी संवत 1575 में इनका निधन मन जाता है | इसके समर्थन में निम्नलिखित उक्ति मिलती है -
"संवत पंद्रह सौ पछ्त्तरा ,कियो मगहर को गौन |
माघे सुदी एकादशी ,रलौ पौन में पौन  ||"

रचनाए

कबीदास की रचनाओं को उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र तथा शिष्यों ने 'बीजक' के नाम से संग्रहीत किया। इस बीजक के तीन भाग हैं-- (1) सबद (2) साखी (3) रमैनी। बाद में इनकी रचनाओं को 'कबीर ग्रंथावली' के नाम से संग्रहीत किया गया। कबीर की भाषा में ब्रज, अवधी, पंजाबी, राजस्थानी और अरबी फ़ारसी के शब्दों का मेल देखा जा सकता है। उनकी शैली उपदेशात्मक शैली है।