Monday 24 July 2017

Kavivar Bihari lal



पूरा नाम - बिहारीलाल
जन्म - सन 1595 के आसपास
पिता - केशवराय
जन्म भूमि - ग्वालियर
मृत्यु - 1663

जन्म

बिहारी लाल का नाम हिन्दी साहित्य के रीति काल के कवियों में महत्त्वपूर्ण है। महाकवि बिहारीलाल का जन्म 1595 के लगभग ग्वालियर में हुआ। वे जाति के माथुर चौबे थे। उनके पिता का नाम केशवराय था। उनका बचपन बुंदेलखंड में कटा और युवावस्था ससुराल मथुरा में व्यतीत हुई, जैसे की निम्न दोहे से प्रकट है -

जनम ग्वालियर जानिये खंड बुंदेले बाल ।
तरुनाई आई सुघर मथुरा बसि ससुराल ।।

जयपुर-नरेश मिर्जा राजा जयसिंह अपनी नयी रानी के प्रेम में इतने डूबे रहते थे कि वे महल से बाहर भी नहीं निकलते थे और राज-काज की ओर कोई ध्यान नहीं देते थे। मंत्री आदि लोग इससे बड़े चिंतित थे, किंतु राजा से कुछ कहने को शक्ति किसी में न थी। बिहारी ने यह कार्य अपने ऊपर लिया। उन्होंने निम्नलिखित दोहा किसी प्रकार राजा के पास पहुंचाया -

नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल।
अली कली ही सा बिंध्यों, आगे कौन हवाल॥

इस दोहे ने राजा पर मंत्र जैसा कार्य किया। वे रानी के प्रेम-पाश से मुक्त होकर पुनः अपना राज-काज संभालने लगे। वे बिहारी की काव्य कुशलता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बिहारी से और भी दोहे रचने के लिए कहा और प्रति दोहे पर एक अशर्फ़ी देने का वचन दिया।


रचनाएं

रीतिकालीन कवियों में उनकी गणना प्रतिनिधि कवि के रुप में की जाती है। बिहारी की एकमात्र रचना सतसई (सप्तशती) है। यह मुक्तक काव्य है। इसमें 719 दोहे संकलित हैं। सतसई' में ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है। इनके दोहे विभिन्न विषय एवम भाव से युक्त है। इन्होंने अलंकार, नायिका भेद, विभाव, अनुभाव, संचारी भाव संबंधित जो उत्कृष्ट अभिव्यक्ति की है वह अद्भुत है। सतसई को तीन मुख्य भागों में विभक्त कर सकते हैं- नीति विषयक, भक्ति और अध्यात्म भावपरक, तथा शृगांरपपरक। इनमें से शृंगारात्मक भाग अधिक है। कलाचमत्कार सर्वत्र चातुर्य के साथ प्राप्त होता है।

साहित्य में स्थान

बिहारी की सतसई नामक काव्य रचना हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है। सौंदर्य प्रेम के चित्रण में भक्ति और नीति के समन्वय ज्योतिष गणित दर्शन के निरूपण में तथा भाषा के लक्षण एवं व्यंजक प्रयोग की दृष्टि से बिहारी बेजोड़ है। भाषा और शिल्प की दृष्टि से सतसई काव्य श्रेष्ठ है। बिहारी का स्थान हिन्दी साहित्य के रीतिकालीन कवियों में बहुत बड़ा है,उनका एक ही ग्रन्थ उनकी महती कीर्ति  का आधार है। बिहारी सतसई का दोहा एक -एक उज्जवल रत्न है। उन्होंने गागर में सागर भर दिया है। इनके दोहे रस की पिचकारियाँ है। वे एक ऐसी मीठी रोटी है,जिसे जिधर से तोडा जाय ,उधर से मीठी लगती है। किसी ने ठीक ही कहा है -

सतसैया के दोहरे ,ज्यों नैनन के तीर ।
देखन में छोटे लगे ,बेधे सकल शरीर ।।

निधन

सन 1663 के लगभग में महाकवि बिहारीलाल जी ने अपना शरीर त्याग दिया ।
 

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