पूरा नाम - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
जन्म - 9 सितंबर 1850
जन्मस्थान - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
पिता - गोपाल चंद्र
जन्म
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म काशी नगरी के प्रसिद्ध 'सेठ अमीचंद' के वंश में 9 सितम्बर सन् 1850 को हुआ। इनके पिता 'बाबू गोपाल चन्द्र' भी एक कवि थे। इनके घराने में वैभव एवं प्रतिष्ठा थी। जब इनकी अवस्था मात्र 5 वर्ष की थी, इनकी माता चल बसी और दस वर्ष की आयु में पिता जी भी चल बसे। भारतेन्दु जी विलक्षण प्रतिभा के व्यक्ति थे। इन्होंने अपने परिस्थितियों से गम्भीर प्रेरणा ली।
शिक्षा
स्कूली शिक्षा प्राप्त करने में भारतेंदु जी असमर्थ रहे। घर पर रह कर हिंदी, मराठी, बंगला, उर्दू तथा अंग्रेज़ी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।
भारतेंदु जी को काव्य-प्रतिभा अपने पिता से विरासत के रूप में मिली थी। उन्होंने पांच वर्ष की अवस्था में ही निम्नलिखित दोहा बनाकर अपने पिता को सुनाया और सुकवि होने का आशीर्वाद प्राप्त किया-
लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुध्द सुजान।
वाणा सुर की सेन को हनन लगे भगवान।।
साहित्यिक सेवाएँ
पंद्रह वर्ष की अवस्था से ही भारतेंदु ने साहित्य सेवा प्रारंभ कर दी थी, अठारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने कवि वचन-सुधा नामक पत्र निकाला जिसमें उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं।हरिश्चन्द्र जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। अत: उन्होंने साहित्य के हर क्षेत्र में काम किया है। कविता, नाटक, निबन्ध, व्याख्यान आदि पर उन्होंने कार्य किया। 'सुलोचना'उनका प्रमुख आख्यान है। 'बादशाह दर्पण' उनका इतिहास की जानकारी प्रदान करने वाला ग्रन्थ है। इन्होंने संयोग का बड़ा ही सजीव एवं सुन्दर चित्रण किया है |
रोकत है तो अमंगल होय, और प्रेम नसै जो कहैं प्रिय जाइए।
जो कहें जाहु न, तो प्रभुता, जो कछु न कहैं तो सनेह नसाइए।
जो हरिश्चन्द्र कहैं, तुमरे बिन, जियें न तो यह क्यों पतियाइए।
तासो पयान समै तुझसौं हम का कहैं प्यारे हमें समझाइए।।
भाषा
भारतेंदु जी के काव्य की भाषा प्रधानतः ब्रज भाषा है। उन्होंने ब्रज भाषा के अप्रचलित शब्दों को छोड़ कर उसके परिकृष्ट रूप को अपनाया। उनकी भाषा में जहां-तहां उर्दू और अंग्रेज़ी के प्रचलित शब्द भी जाते हैं। भारतेंदु जी की भाषा में कहीं-कहीं व्याकरण संबंधी अशुध्दियां भी देखने को मिल जाती हैं। मुहावरों का प्रयोग कुशलतापूर्वक हुआ है। भारतेंदु जी की भाषा सरल और व्यवहारिक है।
शैली
भारतेंदु जी के काव्य में निम्नलिखित शैलियों के दर्शन होते हैं -
1. रीति कालीन रसपूर्ण अलंकार शैली - श्रृंगारिक कविताओं में।
2. भावात्मक शैली - भक्ति के पदों में।
3. व्यंग्यात्मक शैली - समाज-सुधार की रचनाओं में।
4. उद्बोधन शैली - देश-प्रेम की कविताओं में।
मुख्य कृतियाँ
नाटक - वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, भारत दुर्दशा, सत्य हरिश्चंद्र, श्री चंद्रावली, नीलदेवी, अंधेर नगरी ।
अनुवाद - बाँग्ला से 'विद्यासुंदर' नाटक, संस्कृत से 'मुद्राराक्षस' नाटक, और प्राकृत से 'कपूरमंजरी' नाटक ।
काव्य कृतियाँ - भक्त-सर्वस्व, प्रेम-मालिका, प्रेम-माधुरी, प्रेम-तरंग, उत्तरार्द्ध-भक्तमाल, प्रेम-प्रलाप, गीत-गोविंदानंद, होली, मधु-मुकुल, राग-संग्रह, वर्षा-विनोद, विनय प्रेम पचासा, फूलों का गुच्छा, प्रेम-फुलवारी, कृष्णचरित्र ।
साहित्य में स्थान
आधुनिक हिंदी साहित्य में भारतेंदु जी का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। भारतेंदु बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे। कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध आदि सभी क्षेत्रों में उनकी देन अपूर्व है। भारतेंदु जी हिंदी में नव जागरण का संदेश लेकर अवतरित हुए। उन्होंने हिंदी के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण कार्य किया। मातृ-भाषा की सेवा में उन्होंने अपना जीवन ही नहीं संपूर्ण धन भी अर्पित कर दिया। हिंदी भाषा की उन्नति उनका मूलमंत्र था।
अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण भारतेंदु हिंदी साहित्याकाश के एक दैदिप्यमान नक्षत्र बन गए और उनका युग भारतेंदु युग के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
मृत्यु
06 जनवरी 1885 में महाकवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने अपना शरीर त्याग दिया।
जन्म - 9 सितंबर 1850
जन्मस्थान - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
पिता - गोपाल चंद्र
जन्म
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म काशी नगरी के प्रसिद्ध 'सेठ अमीचंद' के वंश में 9 सितम्बर सन् 1850 को हुआ। इनके पिता 'बाबू गोपाल चन्द्र' भी एक कवि थे। इनके घराने में वैभव एवं प्रतिष्ठा थी। जब इनकी अवस्था मात्र 5 वर्ष की थी, इनकी माता चल बसी और दस वर्ष की आयु में पिता जी भी चल बसे। भारतेन्दु जी विलक्षण प्रतिभा के व्यक्ति थे। इन्होंने अपने परिस्थितियों से गम्भीर प्रेरणा ली।
शिक्षा
स्कूली शिक्षा प्राप्त करने में भारतेंदु जी असमर्थ रहे। घर पर रह कर हिंदी, मराठी, बंगला, उर्दू तथा अंग्रेज़ी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।
भारतेंदु जी को काव्य-प्रतिभा अपने पिता से विरासत के रूप में मिली थी। उन्होंने पांच वर्ष की अवस्था में ही निम्नलिखित दोहा बनाकर अपने पिता को सुनाया और सुकवि होने का आशीर्वाद प्राप्त किया-
लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुध्द सुजान।
वाणा सुर की सेन को हनन लगे भगवान।।
साहित्यिक सेवाएँ
पंद्रह वर्ष की अवस्था से ही भारतेंदु ने साहित्य सेवा प्रारंभ कर दी थी, अठारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने कवि वचन-सुधा नामक पत्र निकाला जिसमें उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं।हरिश्चन्द्र जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। अत: उन्होंने साहित्य के हर क्षेत्र में काम किया है। कविता, नाटक, निबन्ध, व्याख्यान आदि पर उन्होंने कार्य किया। 'सुलोचना'उनका प्रमुख आख्यान है। 'बादशाह दर्पण' उनका इतिहास की जानकारी प्रदान करने वाला ग्रन्थ है। इन्होंने संयोग का बड़ा ही सजीव एवं सुन्दर चित्रण किया है |
रोकत है तो अमंगल होय, और प्रेम नसै जो कहैं प्रिय जाइए।
जो कहें जाहु न, तो प्रभुता, जो कछु न कहैं तो सनेह नसाइए।
जो हरिश्चन्द्र कहैं, तुमरे बिन, जियें न तो यह क्यों पतियाइए।
तासो पयान समै तुझसौं हम का कहैं प्यारे हमें समझाइए।।
भाषा
भारतेंदु जी के काव्य की भाषा प्रधानतः ब्रज भाषा है। उन्होंने ब्रज भाषा के अप्रचलित शब्दों को छोड़ कर उसके परिकृष्ट रूप को अपनाया। उनकी भाषा में जहां-तहां उर्दू और अंग्रेज़ी के प्रचलित शब्द भी जाते हैं। भारतेंदु जी की भाषा में कहीं-कहीं व्याकरण संबंधी अशुध्दियां भी देखने को मिल जाती हैं। मुहावरों का प्रयोग कुशलतापूर्वक हुआ है। भारतेंदु जी की भाषा सरल और व्यवहारिक है।
शैली
भारतेंदु जी के काव्य में निम्नलिखित शैलियों के दर्शन होते हैं -
1. रीति कालीन रसपूर्ण अलंकार शैली - श्रृंगारिक कविताओं में।
2. भावात्मक शैली - भक्ति के पदों में।
3. व्यंग्यात्मक शैली - समाज-सुधार की रचनाओं में।
4. उद्बोधन शैली - देश-प्रेम की कविताओं में।
मुख्य कृतियाँ
नाटक - वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, भारत दुर्दशा, सत्य हरिश्चंद्र, श्री चंद्रावली, नीलदेवी, अंधेर नगरी ।
अनुवाद - बाँग्ला से 'विद्यासुंदर' नाटक, संस्कृत से 'मुद्राराक्षस' नाटक, और प्राकृत से 'कपूरमंजरी' नाटक ।
काव्य कृतियाँ - भक्त-सर्वस्व, प्रेम-मालिका, प्रेम-माधुरी, प्रेम-तरंग, उत्तरार्द्ध-भक्तमाल, प्रेम-प्रलाप, गीत-गोविंदानंद, होली, मधु-मुकुल, राग-संग्रह, वर्षा-विनोद, विनय प्रेम पचासा, फूलों का गुच्छा, प्रेम-फुलवारी, कृष्णचरित्र ।
साहित्य में स्थान
आधुनिक हिंदी साहित्य में भारतेंदु जी का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। भारतेंदु बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे। कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध आदि सभी क्षेत्रों में उनकी देन अपूर्व है। भारतेंदु जी हिंदी में नव जागरण का संदेश लेकर अवतरित हुए। उन्होंने हिंदी के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण कार्य किया। मातृ-भाषा की सेवा में उन्होंने अपना जीवन ही नहीं संपूर्ण धन भी अर्पित कर दिया। हिंदी भाषा की उन्नति उनका मूलमंत्र था।
अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण भारतेंदु हिंदी साहित्याकाश के एक दैदिप्यमान नक्षत्र बन गए और उनका युग भारतेंदु युग के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
मृत्यु
06 जनवरी 1885 में महाकवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने अपना शरीर त्याग दिया।
0 Comment to "Bhartendu Harishchandra"
Post a Comment