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Monday, 22 January 2018

Pt. Laxmi Narayan Mishra


लक्ष्मी नारायण मिश्र जी का जन्म सन 1903 में उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ ज़िले के बस्ती नामक ग्राम में हुआ था। उन्होंने वर्ष 1928 में अपनी बी.ए. की परीक्षा 'केंद्रीय हिन्दू कॉलेज', काशी से उत्तीर्ण की थी। 18 वर्ष की अवस्था से ही लक्ष्मी नारायण मिश्र साहित्य सृजन की ओर उन्मुख हुए। उनकी 'अंतर्जगत्' (1921-1922 ई.) नामक काव्य रचना उसी समय की है। इसके उपरांत आपकी नाटकीय प्रतिभा का उदय प्रारम्भ हुआ। 'अशोक' उनका पहला नाटक है। प्रलय के पंख पर' और 'अशोक वन' मिश्रजी के दो एकांकी संग्रह हैं। 'प्रलय के पंख पर' नामक एकांकी सग्रह में लेखक की छ: एकांकी संग्रहीत हैं। प्राय: समस्त एकांकी समस्या प्रधान हैं। अधिकांश एकांकी विशुद्धत: नारी समस्या को आधार बनाकर लिखी गई हैं। दो-एक एकांकी ग्रामीण भावभूमि तथा वहाँ के जन-जीवन से उत्पन्न समस्याओं पर लिखी गई हैं। इन दो संग्रहों के अतिरिक्त 'भगवान मनु तथा अन्य एकांकी' भी एक संग्रह है। इसके सभी एकांकी पौराणिक और ऐतिहासिक हैं। 'भगवान् मनु', 'विधायक पराशर', 'याज्ञवल्क्य', 'कौटिल्य', 'आचार्य शंकर', एकांकी के ये नाम ही हिन्दुत्व और भारतीय संस्कृति के ऐसे उज्ज्वल उदाहरण लगते हैं कि हिन्दू मन इनसे सर्वथा अभिभूत हो जाता है। इन एकांकियों की शिल्पविधि पर रेडियो एकांकी कला और उसके शिल्प संगठन का प्रभाव स्पष्ट है। ये एकांकियाँ जयशंकर प्रसाद के नाटकों की भाँति ही पठन-पाठन की सुन्दर सामग्री उपस्थित करती हैं, पर इनका रंगमंचीय पक्ष उतना ही निर्बल और जटिल है।मिश्र जी के एकांकी विषय वस्तु की दृष्टि से पौराणिक, ऐतिहासिक, तथा मनोवैज्ञानिक पृष्ठ भूमि लिए हुए हैं। उनके एकांकियों में पात्र कम संख्या में रहते हैं। वे उनका चरित्रांकन इस प्रकार करते हैं कि वे लेखक के मानसपुत्र न लग कर जीते-जागते और अपने निजी जीवन को जीते हुए लगते हैं। मिश्र जी की सम्वादयोजना सार्थक, आकर्षक, सरल, संक्षिप्त, मर्मस्पर्शी तथा नाटकीय गुणों से परिपूर्ण होती है।

कृतियाँ

नाटक

    अशोक,
    संन्यासी ,
    रक्षा का मन्दिर,
    मुक्तिका रहस्य ,
    आधी रात,
    गरुड़ध्वज ,
    नारद की वीणा,
    वत्सराज और दशाश्वमेध,
    वितस्ता की लहरें,
    चक्रव्युह,
    समाज के स्तम्भ,
    गुड़िया का घर,
    मिस्टर अभिमन्यु,

अन्य रचनाएँ

    अन्तर्जगत् (कविता संग्रह)
    अशोक वन (एकांकी संग्रह)

निधन

लक्ष्मी नारायण मिश्र जी का निधन सन 1987 में हुआ।

Harikrishana Perami


हरिकृष्ण 'प्रेमी' का जन्म 1908 ई. को गुना, ग्वालियर, मध्य प्रदेश में हुआ था। इनका परिवार राष्ट्रभक्त था तथा इनमें बचपन से ही राष्ट्रीयता के संस्कार थे। दो वर्ष की अवस्था में माता की मृत्यु हो गयी थी। प्रेम की अतृप्त तृष्णा ने उन्हें स्वयं 'प्रेमी' बना दिया। बंधु-बांधवों के प्रति स्नेहालु, मित्रों के प्रति अनुरक्त, स्वदेशानुराग, मनुष्य मात्र के प्रति सौहाएद-यही उनके अंतर मन का विकास है।

 भाषा-शैली

भाषा -
हरिकृष्ण 'प्रेमी' सफल नाटककार हैं। आपकी भाषा शुध्द साहित्यिक खड़ी बोली है। आपने अवसर, पात्र, विषय आदि के अनुरूप भाषा का सटीक प्रयोग किया है । आवश्यकतानुसार  आपने अपनी रचनाओं में तत्सम शब्दों के साथ-साथ, तदभव,देशज एवं उर्दू  आदि शब्दों का सुन्दर समावेश किया है। संप्रेषणशीलता आपकी  भाषा की प्रमुख विशेषता है ।

शैली - हरिकृष्ण 'प्रेमी जी ने विविध शैलियों का प्रयोग किया है । इन्होने मुख्यतः गीत नाट्यशैली का सफल प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त संवाद शैली, भावात्मक शैली का भी अपने नाटकों में प्रयोग किया है। 'प्रेमी' जी के नाटकों में स्वच्छंदतावादी शैली का  सयमित एवं अनुशासित प्रयोग हुआ है।

 रचनाएँ - 
 
1.बन्धन  (नाटक )
2. बादलों के पार  (एकांकी )
3. रक्षाबंधन  ( नाटक )


मृत्यु

हरिकृष्ण 'प्रेमी' जी की मृत्यु 1974 ई. में हुई थी।
 

Vishnu Prabhakar


विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून, सन् 1912 को मीरापुर, ज़िला मुज़फ़्फ़रनगर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। इन्हें इनके एक अन्य नाम 'विष्णु दयाल' से भी जाना जाता है। इनके पिता का नाम दुर्गा प्रसाद था, जो धार्मिक विचारधारा वाले व्यक्तित्व के धनी थे। प्रभाकर जी की माता महादेवी पढ़ी-लिखी महिला थीं, जिन्होंने अपने समय में पर्दा प्रथा का घोर विरोध किया था।विष्णु प्रभाकर की आरंभिक शिक्षा मीरापुर में हुई थी। उन्होंने सन् 1929 में चंदूलाल एंग्लो-वैदिक हाई स्कूल, हिसार से मैट्रिक की परीक्षा पास की। इसके उपरांत नौकरी करते हुए पंजाब विश्वविद्यालय से 'भूषण', 'प्राज्ञ', 'विशारद' और 'प्रभाकर' आदि की हिंदी-संस्कृत परीक्षाएँ भी उत्तीर्ण कीं। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से ही बी.ए. की डिग्री भी प्राप्त की थी। रभाकर जी के घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। यही कारण था कि उन्हें काफ़ी कठिनाइयों और समस्याओं का सामना करना पड़ा था। वे अपनी शिक्षा भली प्रकार से प्राप्त नहीं कर पाये थे। अपनी घर की परेशानियों और ज़िम्मेदारियों के बोझ से उन्होंने स्वयं को मज़बूत बना लिया। उन्होंने चतुर्थ श्रेणी की एक सरकारी नौकरी प्राप्त की। इस नौकरी के जरिए पारिश्रमिक रूप में उन्हें मात्र 18 रुपये प्रतिमाह का वेतन प्राप्त होता था। विष्णु प्रभाकर जी ने जो डिग्रियाँ और उच्च शिक्षा प्राप्त की, तथा अपने घर-परिवार की ज़िम्मेदारियों को पूरी तरह निभाया, वह उनके अथक प्रयासों का ही परिणाम था।

प्रमुख कृतियाँ

उपन्यास - ढलती रात, स्वप्नमयी, अर्धनारीश्वर, धरती अब भी घूम रही है, क्षमादान, दो मित्र, पाप का घड़ा, होरी,

नाटक - हत्या के बाद, नव प्रभात, डॉक्टर, प्रकाश और परछाइयाँ, बारह एकांकी, अशोक, अब और नही, टूट्ते परिवेश,

कहानी संग्रह - संघर्ष के बाद, धरती अब भी धूम रही है, मेरा वतन, खिलोने, आदि और अन्त्,

आत्मकथा - पंखहीन नाम से उनकी आत्मकथा तीन भागों में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।

जीवनी - आवारा मसीहा,

यात्रा वृतान्त् - ज्योतिपुन्ज हिमालय, जमुना गन्गा के नैहर मै।

पुरस्कार व सम्मान

विष्णु प्रभाकर जी की प्रमुख रचना 'आवारा मसीहा' सर्वाधिक चर्चित जीवनी है। इस जीवनी रचना के लिए इन्हें 'पाब्लो नेरूदा सम्मान', 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' जैसे कई विदेशी पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। इनका लिखा प्रसिद्ध नाटक 'सत्ता के आर-पार' पर उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 'मूर्ति देवी पुरस्कार' प्रदान किया गया हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा प्रभाकर जी को 'शलाका सम्मान' भी मिल चुका है। 'पद्म भूषण' पुरस्कार भी मिला, किंतु राष्ट्रपति भवन में दुर्व्यवहार के विरोधस्वरूप उन्होंने 'पद्म भूषण' की उपाधि वापस करने घोषणा कर दी।

निधन

भारत के प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकारों में से एक विष्णु प्रभाकर जी का निधन 96 वर्ष की उम्र में 11 अप्रैल, 2009 को नई दिल्ली में हो गया।[2] हिन्दी साहित्य के इस अमूल्य मोती के चले जाने से साहित्य के एक अद्भुत सूरज का अंत हो गया।
 

Upendranath Ashk


उपेन्द्रनाथ अश्क जी का जन्म पंजाब प्रान्त के जालंधर नगर में 14 दिसम्बर, 1910 को एक मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। अश्क जी छ: भाइयों में दूसरे हैं। इनके पिता 'पण्डित माधोराम' स्टेशन मास्टर थे। जालंधर से मैट्रिक और फिर वहीं से डी. ए. वी. कॉलेज से इन्होंने 1931 में बी.ए. की परीक्षा पास की। बचपन से ही अश्क अध्यापक बनने, लेखक और सम्पादक बनने, वक्ता और वकील बनने, अभिनेता और डायरेक्टर बनने और थियेटर अथवा फ़िल्म में जाने के अनेक सपने देखा करते थे।
उपेंद्रनाथ अश्क ने साहित्य की प्राय: सभी विधाओं में लिखा है, लेकिन उनकी मुख्य पहचान एक कथाकार के रूप में ही है। काव्य, नाटक, संस्मरण, उपन्यास, कहानी, आलोचना आदि क्षेत्रों में वे खूब सक्रिय रहे। इनमें से प्राय: हर विधा में उनकी एक-दो महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय रचनाएं होने पर भी वे मुख्यत: कथाकार हैं। उन्होंने पंजाबी में भी लिखा है, हिंदी-उर्दू में प्रेमचंदोत्तर कथा-साहित्य में उनका विशिष्ट योगदान है।

प्रकाशित रचनाएँ

उपन्यास : गिरती दीवारें, शहर में घूमता आईना, गर्म राख, सितारों के खेल, आदि
कहानी संग्रह : सत्तर श्रेष्ठ कहानियां, जुदाई की शाम के गीत, काले साहब, पिंजरा।
नाटक: लौटता हुआ दिन, बड़े खिलाडी, जय-पराजय, स्वर्ग की झलक, भँवर।
एकांकी संग्रह : अन्धी गली, मुखड़ा बदल गया, चरवाहे।
काव्य : एक दिन आकाश ने कहा, प्रातःप्रदीप, दीप जलेगा, बरगद की बेटी, उर्म्मियाँ।
संस्मरण: मण्टो मेरा दुश्मन, फिल्मी जीवन की झलकियाँ
आलोचना: अन्वेषण की सहयात्रा, हिन्दी कहानी: एक अन्तरंग परिचय

सम्मान और पुरस्कार

उपेन्द्रनाथ अश्क जी को सन् 1972 ई. में 'सोवियत लैन्ड नेहरू पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया था। इसके अलावा उपेन्द्रनाथ अश्क को 1965 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।
 
निधन

उपेन्द्रनाथ अश्क जी का 19 जनवरी, सन् 1996 ई. में निधन हो गया था।

Jagdish Chandra Mathur


जगदीशचन्द्र माथुर का जन्म 16 जुलाई, 1917 ई. खुर्जा, बुलंदशहर ज़िला, उत्तर प्रदेश में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा खुर्जा में हुई। उच्च शिक्षा युइंग क्रिश्चियन कॉलेज, इलाहाबाद और प्रयाग विश्वविद्यालय में हुई। प्रयाग विश्वविद्यालय का शैक्षिक वातावरण औऱ प्रयाग के साहित्यिक संस्कार रचनाकार के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका हैं। 1939 ई. में प्रयाग विश्वविद्यालय से एम.ए. (अंग्रेज़ी) करने के बाद 1941 ई. में 'इंडियन सिविल सर्विस' में चुन लिए गए।

साहित्यिक जीवन

अध्ययनकाल से ही उनका लेखन प्रारंभ होता है। आरम्भ से ही आपकी रूचि अभिनय की ओर थी। प्रयाग विश्वविद्यालय में अपने क्षात्र जीवन में आपने विश्वविद्यालय के नाटकों में बार-बार हिस्सा लिया। 1930 ई. में तीन छोटे नाटकों के माध्यम से वे अपनी सृजनशीलता की धारा के प्रति उन्मुख हुए। प्रयाग में उनके नाटक 'चाँद', 'रुपाभ' पत्रिकाओं में न केवल छपे ही, बल्कि इन्होंने 'वीर अभिमन्यु', आदि नाटकों में भाग लिया। 'भोर का तारा' में संग्रहीत सारी रचनाएँ प्रयाग में ही लिखी गईं। यह नाम प्रतीक रूप में शिल्प और संवेदना दोनों दृष्टियों से माथुर के रचनात्मक व्यक्तित्व के 'भोर का तारा' ही है। इसके बाद की रचनाओं में समकालीनता और परंपरा के प्रति गहराई क्रमशः बढ़ती गई है। व्यक्तियों, घटनाओं और देशके विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों से प्राप्त अनुभवों ने सृजन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

प्रमुख कृतियाँ

नाटक

    भोर का तारा' (1946 ई.),
    कोणार्क' (1951 ई.),
    ओ मेरे सपने' (1950 ई.)
    शारदीया' (1959 ईं),
    दस तस्वीरें' (1962 ई.), '
    परंपराशील नाट्य' (1968 ई.),
    पहला राजा' (1970 ई.)
    जिन्होंने जीना जाना' (1972 ई.)


निधन
जगदीशचंद्र माथुर का निधन 14 मई, 1978 को हुआ।

Udyshankar bhatt


उदय शंकर का जन्म 8 दिसम्बर, 1900 ई. को राजस्थान के उदयपुर में हुआ था। वैसे मूलत: वे नरैल (आधुनिक बांगला देश) के एक बंगाली परिवार से ताल्लुक रखते थे। इनके पिता का नाम श्याम शंकर चौधरी और माँ हेमांगिनी देवी थीं। उदय शंकर के पिता अपने समय के प्रसिद्ध वकील थे, जो राजस्थान में ही झालावाड़ के महाराज के यहाँ कार्यरत थे। माँ हेमांगिनी देवी एक बंगाली ज़मींदार परिवार से सम्बन्धित थीं। उदय के पिता को नवाबों द्वारा 'हरचौधरी' की उपाधि दी गई थी, किंतु उन्होंने 'हरचौधरी' में से 'हर' को हटा दिया और अपने नाम के साथ सिर्फ़ 'चौधरी' का प्रयोग करना ही पसन्द किया।उदय शंकर के पिता संस्कृत के माने हुए विद्वान् थे। उन्होंने 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' से स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी। बाद में वे 'ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय' में अध्ययन करने गये और वहाँ वे 'डॉक्टर ऑफ़ फ़िलोसफ़ी' बने। पिता को अपने काम के सिलसिले में बहुत अधिक घूमना पड़ता था, इसलिए परिवार ने अधिकांश समय उदय शंकर के मामा के घर नसरतपुर में उनकी माँ और भाइयों के साथ व्यतीत किया। उदय शंकर की शिक्षा भी विभिन्न स्थानों पर हुई थी, जिनमें नसरतपुर, गाज़ीपुर, वाराणसी और झालावाड़ शामिल हैं। अपने गाज़ीपुर के स्कूल में उदय शंकर ने अपने चित्रकला एवं शिल्पकला के शिक्षक अंबिका चरण मुखोपाध्याय से संगीत और फ़ोटोग्राफ़ी की भी बखूवी शिक्षा हासिल की थी।

उदय शंकर ने भारतीय शास्त्रीय नृत्य के किसी भी स्वरूप में कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया था, उनकी प्रस्तुतियां रचनात्मक थीं। हालांकि कम उम्र से ही वे भारतीय शास्त्रीय और लोक नृत्य शैलियों के संपर्क में आते रहे थे, यूरोप में रहने के दौरान वे बैले से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने दोनों शैलियों के तत्वों को मिलाकर नृत्य की एक नयी शैली की रचना करने का फैसला कर लिया जिसे हाई-डांस (hi-dance) कहा गया।उदय शंकर ने 'भारतीय शास्त्रीय नृत्य' के स्वरूपों और उनके प्रतीकों को नृत्य रूप प्रदान किया। इसके लिए उन्होंने ब्रिटिश संग्रहालय में राजपूत चित्रकला और मुग़ल चित्रकला की शैलियों का गम्भीर अध्ययन किया। इसके अतिरिक्त ब्रिटेन में अपने प्रवास के दौरान वे नृत्य प्रदर्शन करने वाले कई कलाकारों के संपर्क में आये। बाद में वे फ़्राँसीसी सरकार के वजीफे 'प्रिक्स डी रोम' पर कला में उच्च-स्तरीय अध्ययन के लिए वे रोम चले गए। शीघ्र ही इस तरह के कलाकारों के साथ उदय शंकर का संपर्क बढ़ता चला गया। साथ ही भारतीय नृत्य करने को एक समकालीन रूप देने का उनका विचार भी मजबूत हुआ।

कृतियाँ

उदयशंकर भट्ट की रचनाएं हैं - तक्षशिला, राका, मानसी, विसर्जन, अमृत और विष, इत्यादि, युगदीप, यथार्थ और कल्पना, विजयपथ, अन्तर्दर्शन : तीन चित्र, मुझमें जो शेष है(काव्य)।

वह जो मैंने देखा, नए मोड़, सागर, लहरें और मनुष्य, लोक-परलोक, शेष-अशेष (उपन्यास)

पुरस्कार

    1960: संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार - 'क्रिएटिव डांस (रचनात्मक नृत्य)'
    1962: संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप
    1971: पद्म विभूषण
    1975: देसीकोकोट्टम, विश्व भारती विश्वविद्यालय

निधन

'भारतीय शास्त्रीय नृत्य' को विश्व मंच पर ख्याति दिलाने वाले उदय शंकर का निधन 26 सितम्बर, 1977 ई. को कोलकाता में हुआ।